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जब-जब कालिख सने समय के,
पन्ने खोले जाएंगे
मानवता पर लगे ग्रहण को,
सीधा याद दिलाएंगे।

आफत को जो अवसर मानें,
लाभ कमाने बैठे हैं
अन्तस् को बस मार दिया है,
हठ में अपनी ऐंठे हैं
आज हवा और दवा सब पर,
जिनका पूरा कब्जा है
जान छीनने के कामों को,
ही करने का जज़्बा है।
उनके सारे कर्म आज के,
सदा ही मुँह चिढाएंगे।
जब-जब कालिख सने समय के,
पन्ने खोले जाएंगे।

कुर्सी का लालच कुर्सी का
मद अब जिन पर छाया है
जिनके दुष्कृत्यों के कारण,
हर जन ही भरमाया है।
दूर रही जो दूरदर्शिता,
लचर व्यवस्था भारी है
जिसकी भूल भुगतती दिखती,
अब जनता बेचारी है।
प्रश्न चिह्न उनकी मंशा पर,
बार-बार दिख जाएँगे।
जब-जब कालिख सने समय के,
पन्ने खोले जाएंगे।


आगे आकर मानवता का,
जिसने मान बढ़ाया है।
खुद को जिसने खूब सँभाला,
सहयोगी बन पाया है
जिस के मन में जन सेवा की,
मूरत एक समाई है
परहित जिसके कर्म सकल हैं,
जनहित नेक कमाई है।
उसके कर्मों से उत्सर्जित,
लोग उजाला पाएंगे।
जब-जब कालिख सने समय के,
पन्ने खोले जाएंगे।

कुदरत की छाती पर तांडव,
मानव करता आया है
खुद को उसका मालिक माना,
उस पर राज चलाया है
भूल बड़ी मानव की उसको,
कुदरत ने याद दिलाई
आगे भूल करी जो उसने,
फिर क्या-क्या होगा भाई?
आज अगर सोचेंगे जन तो,
दुख कल मुश्किल पाएंगे
जब-जब कालिख सने समय के
पन्ने खोले जाएंगे।

मौलिक अप्रकाशित

सतविन्द्र कुमार राणा 'बाल'

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