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छाँव --- मीना पाठक

वसू हूँ मैं
मेरे ही अन्दर
से तो फूटे हैं
श्रृष्टि के अंकुर
आँचल की
ममता दे सींचा
अपने आप में
जकड़ कर रक्खा
ताकि वक्त
की तेज आंधियाँ
उन्हें अपने साथ
उड़ा ना ले जाएं
बढ़ते हुए
निहारती रही
पल-पल
अब वो नन्हें
से अंकुर
विशाल वृक्ष
बन चुके हैं
और मैं बैठी हूँ
उस वृक्ष की
शीतल छाँव में
आनन्दित
मगन
अपने आप में ||


मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Meena Pathak on August 24, 2013 at 4:49pm

आदरणीय बृजेश जी रचना सराहने और मार्गदर्शन के लिए  हार्दिक आभार ......  आगे से ध्यान रखूँगी |

Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 1:21pm

बहुत ही सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!
एक सुझाव है कि पंक्ति की शुरूआत कारकों से न किया करें। उन्हें पिछली पंक्ति के साथ ही रहने दें। इससे प्रवाह पर असर होता है।
सादर!

Comment by Meena Pathak on March 21, 2013 at 7:25pm

हार्दिक आभार आदरणीय दिनेश जी

Comment by Meena Pathak on March 5, 2013 at 10:21am

हार्दिक आभार वेदिका जी 

Comment by वेदिका on March 5, 2013 at 9:57am

अब वो नन्हें
से अंकुर
विशाल वृक्ष
बन चुके हैं
और मैं बैठी हूँ
उस वृक्ष की
शीतल छाँव में 

बहुत सुंदर भाव प्रवणता !

शुभकामनायें 

सादर वेदिका 

Comment by Meena Pathak on March 5, 2013 at 8:16am

आदरणीय पवन जी .. सादर आभार 

Comment by Meena Pathak on March 5, 2013 at 8:15am

मेरा आभार स्वीकारें किशन जी 

Comment by Meena Pathak on March 5, 2013 at 8:14am

आदरणीय पंकज जी सादर आभार 

Comment by Meena Pathak on March 5, 2013 at 8:13am

बहुत बहुत हार्दिक आभार स्वीकारें  राजेश कुमारी  जी 

Comment by Meena Pathak on March 5, 2013 at 8:11am

आभार आ.सतवीर वर्मा जी 

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