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दिल्ली चीखती है

किसी की सरफ़रोशी चीखती है
वतन की आज मिट्टी चीखती है

हक़ीक़त से तो मैं नज़रें चुरा लूँ
मगर ख़्वाबों में दिल्ली चीखती है

हुकूमत कब तलक ग़ाफिल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीखती है

भुला पाती नहीं लख्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीखती है

बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आंगन में तितली चीखती है

गरीबी आज भी भूखी ही सोई
मेरी थाली में रोटी चीखती है

महज़ अल्फ़ाज़ मत समझो इन्हें तुम
हरेक पन्ने पे स्याही चीखती है

मियाँ, मुश्किल बहुत है शायरी ये
ग़ज़ल कहने पे बीवी चीखती है

जिसे तू ढूँढने निकला है 'परिमल'
तेरे सीने में बैठी चीखती है

© समीर परिमल

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Comment

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Comment by Aditya Kumar on October 22, 2014 at 7:50pm

badhiya.... 

Comment by Samir Parimal on October 22, 2014 at 4:16pm
बहुत बहुत शुक्रिया भाई निलेश जी
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 22, 2014 at 1:26pm

वाह वाह वाह ... समीर भाई की एक और शानदार ग़ज़ल पढने को मिली ..वाह 

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