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ग़ज़ल- कि दरिया पार होकर भी किनारे छूट जाते हैं

१२२२       १२२२          १२२२         १२२२

ज़रा सी बात पर अनबन, भरोसे टूट जाते हैं

कि साथी सात जन्मों के पलों में छूट जाते हैं

ये दिल का मामला प्यारे नहीं दरकार पत्थर की

ज़रा सी बेरुखी से ही ये शीशे फूट जाते हैं

ये ऐसा दौर है साहिब कि आँखें खोल हम सोये

मगर हद है लुटेरे सामने ही लूट जाते हैं

ये माना बेखुदी में हो मगर कुछ होश भी रखना

बहुत जल्दी ही  ख्वाबों के घरौंदे टूट जाते हैं

खुदी में दम नहीं है गर तो हासिल कुछ नहीं होता

कि दरिया पार होकर भी किनारे छूट जाते हैं

संजू शब्दिता मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:31pm

आदरणीय अतुल कुशवाहा जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका

Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:31pm

आदरणीय जितेंद्र गीत जी बहुत शुक्रिया आपका

Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:30pm

आदरणीय गोपाल सर बहुत बहुत शुक्रिया आपका

Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:30pm

आदरणीय आशुतोष जी बहुत शुक्रिया आपका

Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:29pm

आदरणीय गिरिराज सर आपकाहार्दिक धन्यवाद

Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:29pm

आदरणीय अरुण अनंत जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका

Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:28pm

आदरणीय रवि प्रभाकर जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका

Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:27pm

आदरणीय नीलेश जी आपका हार्दिक धन्यवाद

Comment by sanju shabdita on July 7, 2014 at 7:26pm

आदरणीय केवल जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 7, 2014 at 6:56pm

आ0 संजू जी,  एक बेहतरीन और लाजवाब गजल हुई है।  हार्दिक बधाई स्वीकारें।  सादर,

कृपया ध्यान दे...

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