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ग़ज़ल : तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है

तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है

तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है

किसी को साथ रखने भर से वो अपना नहीं होता

जो मेरे दिल में रहता है हमेशा, वो पराया है

तेरी नज़रों से मैं कुछ भी छुपा सकता नहीं हमदम

बदन से रूह तक तेरे लिए सबकुछ नुमाया है

कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था

बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है

-------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by भुवन निस्तेज on April 18, 2014 at 11:02pm

बहुत खूब आदरणीय 

महीनों तक तुम्हारे प्यार में इसको पकाया है

तभी जाके ग़ज़ल पर ये गुलाबी रंग आया है

अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है

तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है

कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था

बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है

 

इस बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई....

Comment by नादिर ख़ान on April 18, 2014 at 11:02pm

कई दिन से उजाला रात भर सोने न देता था

बहुत मजबूर होकर दीप यादों का बुझाया है...... बहुत खूब कहा आदरणीय धर्मेंद्र जी मगर यादों के दीप को जीतना बुझाने की कोशिश करेंगे, उसकी लौ उतना ही भड़केगी।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 18, 2014 at 12:37pm

अकेला देख जब जब सर्द रातों ने सताया है

तुम्हारा प्यार ही मैंने सदा ओढ़ा बिछाया है....बहुत खूब धर्मेन्द्र भाई , बधाई कबूल करें .

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on April 18, 2014 at 11:15am

आदरणीय धर्मेन्द्र जी
क्या बात है..इस खूबसूरत ग़ज़ल पर मेरी तरफ से हज़ारों दाद हाजिर है..

कृपया ध्यान दे...

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