अहसासों को
प्रज्ञ तुला पर कब तक तोलूँ
चुप रह जाऊँ
या अन्तः स्वर मुखरित बोलूँ
जटिल बहुत है
सत्य निरखना-
नयन झरोखा रूढ़ि मढ़ा है,
यद्यपि भावों की भाषा में
स्वर आवृति को खूब पढ़ा है
प्रति-ध्वनियों के
गुंजन पर इतराती डोलूँ
प्राण पगा स्वर
स्वप्न धुरी पर
नित्य जहाँ अनुभाव प्रखर है
क्षणभंगुरता - सत्य टीसता
सम्मोहन की ठाँव, मगर है
भाव भूमि पर
आदि-अंत के तार टटोलूँ
श्वास-श्वास में
कण-कण जीवन
जी लेने की रख अभिलाषा,
अंतर्मन ही छद्म जिया यदि
जीवन की फिर क्या परिभाषा
निज संचय में
मणिक-मणिक सम सत्य पिरो लूँ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया प्राची मैडम,
अति सुंदर भाव व शब्दों से सजी आप की रचना ने मुझे कुछ पल सोचने पर मजबूर कर दिया।
सह्रदय बधाई
सादर
श्वास-श्वास में
कण-कण जीवन
जी लेने की रख अभिलाषा,
अंतर्मन ही छद्म जिया यदि
जीवन की क्या फिर परिभाषा.......और इसके बाद
निज संचय में
मणिक-मणिक सम सत्य पिरो लूँ........अतीव सुन्दर..समग्र रचना..
बधाई हो आदरणीया
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