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अभिव्यक्ति - खामोश मिज़ाजी से गुज़ारा नहीं होता !

अभिव्यक्ति - खामोश  मिज़ाजी से गुज़ारा नहीं होता !

अपनों ने अगर पीठ पे मारा नहीं होता ,

दुनिया की कोई जंग वो हारा नहीं होता |

 

उनकी हनक से दौड़ने लगती हैं फ़ाइलें ,

रिश्वत  न दें तो काम हमारा नहीं होता |

 

है इश्क तो शक की दरो दीवार गिरा दो ,

बादल हो तो सूरज का नज़ारा नहीं होता |

 

चलती हुई कलम में इन्कलाब का दम है ,

शब्दों से खतरनाक शरारा नहीं होता |

 

हालात सिखा देते हैं कोहराम मचाना ,

खामोश  मिज़ाजी से गुज़ारा नहीं होता |

 

बचना ज़रा की मिलते हैं  पैकिट में बंद लोग ,

भीतर के आदमी  का नज़ारा नहीं होता |

 

हर दौर में गैलीलियो को कैद मिली है ,

सच हर किसी की आँख का तारा नहीं होता |

 

उन छूटती साँसों को दो अपनों का प्यार भी ,

पेंशन की रकम ही से गुज़ारा नहीं होता |

 

तहजीब अदब और सलीका भी तो कुछ है ,

झुकता हुआ हर शख्स बिचारा नहीं होता |

 

हम भी नहीं हो जाते वही पीर कलंदर ,

गर सोच में ये मेरा -  तुम्हारा नहीं होता |

                   - अभिनव अरुण [15042012]

[ आत्मकथ्य :- साथियो !  लिखा ग़ज़ल सोच  कर ही है ; पर जानता हूँ यह उस्तादों की कसौटी पर शायद ही खरी उतरे | सो पहले खेद व्यक्त करता हूँ | इसे एक  कविता की तरह ही परखें - पढ़े - साहित्यिक  आनंद लें यही चाह है , बस | ]

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2012 at 10:21am

अभिनव  अरुण जी सही कह रहे हैं यदि उस्ताद इसे  कांट छांट कर ठीक भी कर देते हैं तो फायदा आपको ही होगा यह एक लाजबाब ग़ज़ल बन रही है हर शेर ग़जब के हैं बस उस्तादों को मरम्मत करने की छूट देदो उसके बाद एक मुकम्मल ग़ज़ल अपने संकलन में जमा कर सकते हैं इसी लिए मैंने एक बार अपने अपडेट में लिखा था ओबी ओ  एक साहित्यिक लेब है प्रोडक्ट निखर के निकलता है |बहरहाल दाद कबूल कीजिये इस लाजबाब ग़ज़ल के लिए| 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 15, 2012 at 10:17am

यदि माने तो केवल दो सुझाव .....(गेयता के आधार पर)

रिश्वत  न दें तो काम हमारा नहीं होता |

रिश्वत के बगैर काम हमारा नहीं होता |

पेंशन की रकम ही से गुज़ारा नहीं होता |

पेंशन की रकम से ही गुज़ारा नहीं होता |

टिप्पणी बाद में :-)


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