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बनते संत महान, काम घटिया ही करते।
खोले धर्म दुकान, कर्म बनिया के करते॥
उनसे लेकर मंत्र, हृदय विह्वल हो रोया।
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥

छोड़ो माया मोह, नित्य हमको समझाया।
कब्जाकर पर भूमि, आश्रम निज बनवाया।
शैम्पू साबून तेल, बेंचते संत वणिक या।
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥

चमत्कार बहु भांति, भांति अनुभव करवाते।
भूले सारा ज्ञान, जेल अपवित्र बताते॥
परम संत क्या जेल, पलंग जंगल हो या?
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥

एक दिवस प्रण ठान, संत जंगल में बैठे।
लायेगा करतार, साधना के बल ऐंठे॥
कहाँ गया वो तेज, आज तू कारा सोया?
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥

किस पर हो विश्वास, जगत ठग से बोझिल है।
सदमार्ग बताता संत, किन्तु छल में शामिल है॥
जप तप व्रत औ ध्यान, लगे जीवन ही खोया।
ठगे गये हम लोग, देख अपनापन खोया॥

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Saurabh Pandey on September 17, 2013 at 11:54pm

भाई विंध्येश्वरीजी, आपका रचनाकर्म उत्साहित कर रहा है.

एक कवि, यानि बुद्धिमान जन,  का दायित्व भाव और शब्दों का मात्र निरुपण करना न हो कर समाज की विड़बनाओं पर शाब्दिक कुठाराघात भी करना है. किन्तु, कवि के नाम पर लोग-बाग तमाम कुठाराघात करने का दायित्व तो याद रखते हैं लेकिन भाव और शब्दों के मध्य संतुलन हेतु आवश्यक प्रयास की अनदेखी कर जाते हैं.

आपके प्रयासों के प्रति मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ.

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on September 16, 2013 at 7:33pm

बहुत सुन्दर महोदय! सभी बातें आपने खुलकर कह दी!

कृपया ध्यान दे...

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