कोविड-19 की दस्तक माह फरवरी 2020 में ही सुनाई देने लगी थी I पर हमारा देश होली के उल्लास के बाद ही इस दिशा में सक्रिय हो पाया I इस बार मासिक साहित्य संध्या 22 मार्च 2020 को प्रस्तावित थी, किन्तु शासन के द्वारा उठाये गए कदमों से किसी स्थान विशेष पर आयोजन संभव नहीं था i अतः अति उत्साही सदस्यों के आह्वान और सहयोग से यह कार्यक्रम ऑनलाइन संचालित हुआ और बेहद सफल रहा I कार्यक्रम के प्रथम चरण में लोकप्रिय ग़ज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ की दो ग़ज़लों पर चर्चा हुयी, जिसमें लगभग सभी प्रतिभागियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और बड़ी साफगोई से अपने विचार पेश किये I सभी ने आहत की ग़ज़लगोई की तारीफ की I उनकी कहन और उनके तगज्जुल के सभी कायल थे I इस पर एक रिपोर्ट अलग से तैयार की गयी है अतः इस पर यहाँ विस्तृत चर्चा नहीं की जा रही है I
कार्यक्रम के दूसरे चरण में पहली प्रस्तुति कवयित्री कौशाम्बरी की थी I इन्होने दो कवितायें पोस्ट कीं – ‘देवदूत’ और ‘कहाँ हो देव ?’ I पहली कविता जाने-अनजाने हिंदी का ‘सममात्रिक चतुष्पद छंद ‘पद्धरि’ है I इस छंद की अनिवार्य शर्त है कि प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ हों और चरणांत जगण (ISI) से हो I कवयित्री ने जहां भी चरणांत जगण (ISI) से किया है कविता में स्वतः निखार आया है I जैसे-
तुम महिमामय के हो प्रसाद
जीवन संध्या के बन प्रकाश
संबल बन सबका कवच ढाल
कौशाम्बरी जी की दूसरी कविता आज की परिस्थिति में यह जानने की कोशिश है कि इस संसार और प्रपंच की रचना ईश्वर ने क्यों की I कवयित्री कहती हैं कि-
कहाँ हो हे देव तुमने खेल क्यों निर्मम रचा है ?
यह एक शाश्वत प्रश्न है, जिसका उत्तर पाने के लिए ऋषियों ने पूरा जीवन वेदों को समझने में लगा दिया
काहे बनाए तूने माटी के पुतले
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले
काहे बनाया तूने दुनिया का खेला
जिसमें लगाया जवानी का मेला
गुप-चुप तमाशा देखे
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने आज के ज्वलंत मुद्दे यानि कि ‘कोरोना’ पर अपनी कविता पोस्ट की I कोरोना के उद्गम की जो आम धारणा है उसको मनुज ने देशज भाषा में बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है I इनकी एक कुंडलिया यहाँ प्रस्तुत है – चमगादड़, कुत्ता भक्षिनि मेंढक केर अचार,
चूहा, गेंगटा पचि गए कीड़न की भरमार।
कीड़न की भरमार पेट मा भौंकइँ कूकुर,
मानवता के काल मिलावैं असुरन ते सुर।
पक्षी पेरैं पियैं उबालैं जिअति धड़ाधड़,
कौरौना गो आइ बचावै का चमगादड़।
मनुज की एक और चटपटी कविता जो गीत के ढब में है, उसे भी बहुत पसंद किया गया I एक झलक यहाँ प्रस्तुत है –
ड्रैगन की उल्टी नीयत का दुनियाँ कहियाँ समुझाइसि है,
कोरौना अइसन हौआ है सबका औक़ाति बताइसि है।
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने ‘मकसद’ शीर्षक से दो कवितायें पोस्ट कीं I पहली कविता की प्रथम दो पंक्ति में ‘आस’ की बेबसी है तो अगली दो पंक्तियों में हवा के साथ का और भंवर से बाहर आने का आशावाद है i इसके बाद कुछ प्रश्न हैं , नियति है , प्रगति है और प्रगति से एक अनजाना डर है I
प्रगति का प्रयास नापते, आतुरता तत्पर
निष्फलता का अन्देशा, हर क्षण रहे सिहर।।
दूसरी कविता में अनेक भावों का विपर्यय है, जो निम्न पंक्तियों से समझा जा सकता है
अनवधानता,ध्येयहीनता,
वक्त रहा गुज़र
कोपल दिखे अचानक एकदिन
अभिप्राय लौटा पहर
हास्य के पुरोधा मृगांक श्रीवास्तव ने हास्य व्यंग्य की कुछ अद्भुत रचनाएं सुनाईं I एक दोहा जो यस बैंक के संस्थापक और पूर्व प्रबंध निदेशक एवं सीईओ राणा कपूर से संबंधित है, उसको बतौर बानगी देखिये -
चेला कहे कपूर को , कोविडवा धरि खाय I
या तो निगलो बैंक एस कोरोना कछु नांय II
ग़ज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने आज के हालात पर मार्गदर्शी दो मिसरे यूँ पोस्ट किये-
न दोस्त की न तो दुश्मन की रह गुज़र में रहे I
ये सब के हक़ में है हर शख़्स अपने घर में रहे II
इसके बाद उनकी एक ग़ज़ल नुमायाँ हुयी I इसके चंद अशआर काबिले गौर हैं I मुलाहिजा फरमाइए –
हम ज़मीं से हैं, ज़मीं के हैं, ज़मीं पे ही रहें,
आख़िर उस अर्श पे छाने की ज़रूरत क्या है?
जिस ने पी ली हो ख़ुदा तेरी परस्तिश की मै,
उसको फिर पीने पिलाने की ज़रूरत क्या है?
कवयित्री नमिता सुन्दर तुम और मैं के बीच संबंधों की नई परिभाषा गढ़ते हुए
कहती हैं कि-
तुम इत्ता इत्ता फैलो तो
शायद कर पाओ निराश
मैं इत्ती सी झलकी तो
खींच दीं उम्मीद रेख.
डॉ. शरदिंदु मुकर्जी ने दो रचनायें पोस्ट की – ‘एलबम’ और ‘नींद नहीं आती है’ I एलबम को खोलते हुए कवि अतीत को टटोलता है, कभी भविष्य के नये सपने उभरते हैं और अतीत तथा भविष्य के दरमियान कवि अपने वर्तमान को टटोलता है I लोग एलबम में अपनी पुरानी छवि देखते हैं, पर कवि उसमें अपनी आवाज तलाशना चाहता है I आवाज मिलती है या नहीं पर एलबम के कोने से झलक उठती है, एक मुस्कान I कवि कहता है-
झलक उठती है एक मुस्कुराहट,/ युग युग से/ युग युग तक / मेरे वर्तमान को रेखांकित करती हुई /एहसास दिलाती हुई / कि/ एलबम केवल छवि की नीरवता से नहीं / नीरवता की छवि से भी संवर सकता है।
दूसरी कविता में नींद न आने की समस्या है और इस समस्या के गर्भ में अनेक वजाहात भी हैं I प्रकृति के उपादान भी कवि से उसकी अनिद्रा का सबब पूछते हैं i अंत में कवि स्वयं ही अनाश्वस्त होकर इस समस्या का हल सुझाता है -
क्या यह खुशियों की तड़प है, तमन्नाओं की खुशबू, जो यादों के रंगमहल में हर घड़ी पनाह लेती हैं - शायरी में शायर की ज़िन्दगी जैसे, क्या यही राज़ है कि मुझे नींद नहीं आती है?
कवयित्री संध्या सिंह की कविताओं का मेयार बुलंदियों पर है अब उनकी किसी एक रचना को अन्यतम कह पाना कठिन है I अब उनके पास क्लास रचनाओं का जखीरा है और उसी का एक नायाब मोती उनकी रचना ‘पाखंड’ है, जो एक ही झटके में नृजाति को स्तब्ध भी करती है और निरुत्तर भी i ऐसा असहाय और बेबस मनुष्य शायद ही इससे पहले कभी हुआ हो i कविता का एक-एक अंश मुकम्मिल है उसमें न कुछ जोड़ा जा सकता है और न घटाया I पूरी कविता पढ़े बिना उसकी जादुई शक्ति को पकड़ पाना मुश्किल है i इसके कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं –
अब / लिखी जाएगी स्त्री / रची जाएगी स्त्री / गढ़ी जाएगी स्त्री / हर आयाम से / हर कोण से / हर दिशा से / निकल आएंगे / कुछ लिजलिजे संवाद / कुछ बेतुके संदर्भI तुम देखोगे / प्रगति के रंगमहल में / बौद्धिक मदिरा का शब्द विलास / और विद्वत्ता के जाम से बुझती / एक अहंकारी प्यास / भर जाएंगे स्त्री से / अर्श और फ़र्श / महामारी की तरह फैलेगा / स्त्री विमर्श / ज़रा रुक जाओ पाठक I
डॉ. अंजना मुखोपाध्याय संध्या जी की इस कविता से इतना अभिभूत हुईं कि उन्होंने पाठक के रूप में पाठक की ओर से एक प्रतिक्रिया कविता में रच डाली I इस कविता की एक बानगी प्रस्तुत है -
स्वीकार नहीं अब तुम्हें महिमामंडन
और फूलों का गहना
बाध्यता और विवशता से कलुषित सराहना।।
गुणगान जब चाटुकारिता लगने लगे
उदघोषणा लाभांश का भुगतान आंके..
सर्वसमता सौजन्य का हो व्यक्त प्रदर्शन
साथ सार्थक ,बराबरी की बहाली
हक़ यही कलरव के पीछे झांके।।
कवयित्री कुंती मुकर्जी की जीवन यात्रा जारी है I उन्हें यकीन है कि अभी बहुत चलना है पर मार्ग की अपनी दुर्गमतायें भी हैं I एक बानगी प्रस्तुत है-
कितने कंकड,कितने पत्थर.. !
मेरे पाँव के साथी बनेंगे..?
धूप-छाँव संग लुका-छिपी ..
खेलती मैं बावरी..!
सर्पिली कितनी पगडंडियाँ..
कब तक भरमाती रहेगी..
कवयित्री आभा खरे ने दो कवितायें पोस्ट कीं – ‘अवसान’ और ‘क्या कभी देख पाओगे ?’ पहली कविता देहावसान से संबंधित है, मगर देह छूटने के बाद भी कुछ बचा रहता है I वह क्या है, इसे काव्य-पंक्ति स्वतः रूपायित करती है –
देह छूटने के बाद
यदि कुछ बचा रह जाता है
तो वो हैं शब्द
जिन्हें वह देह अपने
इंसानी स्वरूप में जी चुका है
इन शब्दों में ही
बची रह जाती हैं कुछ साँसे भी
दूसरी कविता नारी विमर्श की कविता है I कवयित्री पुरुष को ललकारती हुयी कहती हैं –क्या कभी जान पाओगे? और जानना क्या है? नारी की कुंठा जिसके अनगिनत स्वरूप हैं I जैसे -
उसका संघर्ष समाज में अपनी जगह बनाने में
उसका संघर्ष अपने अस्तित्व को स्थापित करने में
उसका संघर्ष घर परिवार और कार्यक्षेत्र में संतुलन बनाने में
कमाल यह है कि कवयित्री के पास अपने ही प्रश्न का उत्तर भी है और वह उत्तर है – शायद कभी नहीं I आभा जी को यकीन है कि पुरुष नारी की कुंठा को कभी समझ नहीं पायेगा क्योंकि उसके पास न तो समय है, न संयम और न इच्छा-शक्ति I
डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने अपनी एक पुरानी रचना सुनाई जिसमें रूमानियत का तड़का था I इस रचना का निदर्शन निम्न प्रकार है -
सोने चांदी से दो पल हैं , प्रिय देखूं या बात करूं I
या बाँहों में चाँद खिलाकर जगमग सारी रात करूं II
कवि दीपककुमार मेहरोत्रा को कोई पुरानी किताब मिल गयी और उसके फटे पन्नो के बीच से उसकी तस्वीर भी और अब वह NOSTALGIA के शिकार होकर चीत्कार कर उठते हैं –
लगा यह आंखें मुझसे पूछ रही हैं एक सवाल-
क्यों धुंधला गया उन हंसी पलों का ख्याल
गली के लैंप-पोस्ट पर वो लंबा इन्तजार
और खिड़की के परदे से झांकती
आँखों की झील में डूबने को बेकरार
डॉ. अशोक शर्मा तपते मौसम में एक बड़ी राहत की तरह आशावाद का मलय-वात लेकर आये I मुस्कानें शायद संक्रामक होती हैं कुछ इस प्रकार -
मुस्काने हंसती भी हैं रोती भी हैं अक्सर
मुस्काने थोड़ी-थोड़ी पागल होती हैं क्या ?
इन अधरों से उन अधरों तक
उन अधरों से उस चेहरे तक
बस चुपचाप पहुंच जाती हैं
यह सब यूँ ही चल रहा था कि अचानक प्रधान मंत्री का देश के नाम संबोधन का समय आ गया I इसलिए कार्यक्रम एक झटके में स्वतः समाप्त हो गया I मैंने सोचा सच ही तो है - साहित्य-उपवन में कविता का फाग चले नवरस में भीजि-भीजि, नेह अनुराग चले धाराधर वर्षा जो रहि- रहि झकोरि लागी सब अनुरक्त सर पर पाँव रखि भाग चले (सद्य रचित)
(मौलिक / अप्रकाशित )
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