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ओ बीओ लखनऊ-चैप्टर के वार्षिक कार्यक्रम माह 24 नवंबर 2019 में प्रदत्त विषय “ छंद-बद्ध   कविता ::  पुनर्स्थापना  की आहट” पर  वक्तव्य :: डॉ. बलराम वर्मा

 हिंदी साहित्य  के उत्तर आधुनिक काल में कई काव्य प्रवृत्तियों ने जन्म लिया , पर कोई भी प्रवृत्ति स्थायी नहीं  हुयी I  इस दौड़ में कविता के जिस स्वरुप  की छाप आज भी व्यापक और लोकप्रिय है , वह  समकालीन कविता है  I इस कविता का अपना कोई  काव्य-शास्त्र नहीं  है . कोई  मीटर,  कोई  शिल्प विधान नहीं है  I काव्यनुशासन  की यह  छूट  कितनी जायज  या नाजायज  है यह बहस  का एक दिलचस्प  मुद्दा हो सकता है  I मगर इसमें संदेह नहीं  कि  समकालीन कविता ने छंद-बद्ध  रचना को कुछ न कुछ बैक फुट  पर अवश्य किया है  I आज जो काव्य शास्त्र उपलब्ध हैं , उनसे हमें  यह ज्ञात होता है की छंदों की संख्या अपरिमेय है  I इसके सापेक्ष कवि समुदाय  ने  अधिक से अधिक कितने छंदों में रचना की है  I मात्रिक की बात करें तो  दोहा रोला, सोरठा, चौपाई , बरवै , गीतिका , हरिगीतिका , कुंडलिया  और छप्पय  आदि छंदों में ही कवि अपना सामर्थ्य तलाशते रहे हैं   I वर्णिक  की बात करें तो कवित्त, घनाक्षरी और सवैया इन्हें ही सिद्ध करने में कवि का पुरुषार्थ क्षीण होता रहा है  I अन्य छंदों को सिद्ध करने की कौन सोचे ? संस्कृत के जिन वर्ण वृत्तों  में हिंदी   कविता कर अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध ‘ ने  कवियों के लिए एक नया रास्ता खोला ,  अपवाद छोड़कर आगे के कवि उस राह पर चल तक नहीं पाए I अभिप्राय यह है के  सागर  में असंख्य मोतियों के रहते हम दो- चार मोती ही खंगाल कर आत्मतुष्ट और कुशल गोताखोर बन जाते हैं   I आज के कवियों में  तो इतना करने का भी दम  नहीं  रहा  I अगर समकालीन कविता लोकप्रिय है तो इसमें किसी को आपत्ति नहीं  है,  पर छंद त्याज्य क्यों है ?  इस सवाल पर मंथन करने  की आवश्यकता  लाजिमी है  I आज का कवि छंदों से परहेज क्यों कर रहा है ? छंद वर्जित और निषिद्ध क्यों होते जा रहे है , जबकि उनका  अपना शिल्प है, अपना मीटर है और अपनी काव्य कसौटी  है  I

 नदी के किनारों में प्रवाह मंद होता  है  I सामान्य जन इन्ही  किनारों  पर अवगाहन कर संतुष्ट हो जाते हैं  I  पर मंझधार में केवल एक कुशल तैराक ही जा सकता है , जिसे नदी में धंसना आता है , जिसे  नदी पार करना आता है  I नदी की अंतर्धारा का सामना करना और उसे अनुभव करना ऐसे ही किसी जीवट  का काम है I  छंद कविता का वह  विधान है जिसे धैर्य पूर्वक पकाना पड़ता है,  सिद्ध करना पड़ता है I आज के कवि को  शायद बड़ी हडबडी और जल्दी है  I  वह आनन-फानन ही श्रेष्ठ होने के लिए कलपता है, बेचैन रहता है और कुंठित भी होता है  I ऐसे लोगों के लिए जयशंकर प्रसाद के  काव्य-‘आंसू’  की  यह पंक्ति याद  आती है –

देखा बौने सागर को , शशि  छूने को ललचाना

वह हाहाकार मचाना, फिर उठ-उठ कर गिर जाना

आज समकालीन कविता शिखर पर है  I  पर इस विधा में कितने महाकाव्य अथवा खंड काव्य रचे गए  या रचे जा रहे है  i मेरे संज्ञान में अभी तक कोई  नहीं,  तो क्या इसे समकालीन कविता  की सामर्थ्य सीमा  के रूप में  देखा जाना चाहिए और सबसे बड़ी बात यह कि समकालीनता की कोई  तो आयु होगी  I समकालीन कविता का अवसान भले  कभी नहीं होगा पर काल कभी न कभी  तो करवट लेगा  I समकालीनता की इस आंधी में लोगों ने यह मान लिया  कि छंद आउट-डेट  हो गए  I आंधी में आँखों में धूल  भर जाती है और  विज़न अस्पष्ट हो जाता है I  साठ -सत्तर के दशक में  जब  समकालीन कविता पूरे भारत में फल फूल रही थी , तब डॉ. लक्ष्मी शंकर निशक ने यहीं  लखनऊ  में छंदों की एक अनूठी अलख  जगाई थी  I उन्होंने छ्न्द्कारों को प्रोत्साहित करने के लिए ‘सुकवि विनोद’ नामक  एक पत्रिका निकाली थी  जो कई वर्ष तक निर्बाध  प्रकाशित हुयी इस  इस पत्रिका में उसी छंद-बद्ध  कविता को स्थान मिलता था जो अपने आप मे सिद्ध होती थी I ‘सुकवि विनोद’ ने अपने समय में  न जाने कितने छंदकार हिंदी –जगत में  स्थापित किये I

 आज भी लखनऊ में  चेतना साहित्य परिषद  जैसे संगठन  सक्रिय है  जो ‘चेतना स्रोत’ जैसी  पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी  के छंद्कारों  को  सवारने, प्रोत्साहित करने  और स्थापित करने में प्राण-पण  से लगे  हैं I  अतः यह कैसे मान लिया  जाय कि छंद-बद्ध  कविता कभी विस्थापित भी हुयी I प्रवाह चाहे जो हो , चाहे  वह पवन और पानी का हो अथवा अजस्र  काव्यधारा का हो अनुकूल एवं प्रतिकूल वातावरण से प्रभावित अवश्य होता है और कदाचित मंद भी होता है पर वह कभी बंद नहीं  होता  I     

                                                                                              पूर्व प्राचार्य सहयोगी  डिग्री कालेज, खुशहालपुर ,                                                                                                                                           बाराबंकी

 (मौलिक, अप्रकाशित )

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