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चलिये शाश्वत गंगा की खोज करें- द्वितीय खंड (3)

गंगा, (ज्ञान गंगा व जल  गंगा) दोनों ही अपने शाश्वत सुन्दरतम मूल  स्वभाव से दूर पर्दुषित  व  व्यथित,  हमारी काव्य कथा  नायक 'ज्ञानी' से संवादरत हैं। 

अब यह सर्वविदित है कि मनुष्य की तमाम विसंगतियों, मुसीबतों, परेशानियों   का कारण उस का ओछा ज्ञान है जिसे वह अपनी तरक्की का प्रयाय मान रहा है. इसी ओछे ज्ञान से मानव को निकालना और सही व ज्ञानोचित अनुभूति का संप्रेष्ण करना अब ज्ञानि का लक्ष्य है. इस के लिये उस ने मानवीय अधिवासों में जा कर प्रवचन देने का मन बना लिया है.

प्रस्तुत श्रंखला उन्हीं प्रवचनों का काव्य रूपांत्र है....

ज्ञानी का दूसरा प्रवचन (ज़ारी  )

(लड़ी जोड़ने के लिए पिछला ब्लॉग पढ़ें....) 

वनस्पति जगत में


समा गई पूरी ही गंगा


सब अहम्  धुल गया


पर लहजा नरम न हुआ


बोली शिव से-


‘ओफ़  हो, कहां से निकलूं


ओफ़  हो, कहां से जाऊं


अरे भाई रास्ता दो’


शिव मुस्कराये-


‘इतनी जल्दी क्या है गंगे 


अभी कुछ देर विश्राम करो


मेरी जटाओं में 


मेरे पेडों की पत्तियों में शाखाओं  में लताओं में


ये वन उपवन,


ये सहस्रों वन प्राणि,


प्यासे हैं तुम्हारे जल के


वे व्यर्थ तुम्हें न बहने देंगे


कहीं और न जाने देंगे


अब आई हो तो थोडी सेवा सुश्रा कर लो इनकी


बहने का क्या है


कभी भी बह लेना'


गंगा नरम पड गई बोली-


‘ओ शिव ! ओ महा हिमालय!!


तुम तो अति सुंदर हो


यह तुम्हारा ललाट पर्वतों से उंचा


अंबर से मिला हुआ 


वहां सुसज्जित चंद्र तुम्हारी शोभा बढा रहा है


ये तुम्हारे उंचे देवदार के वृक्ष कितने घने हैं


कितने पास पास सटे  हैं


अपनी जिद पर डटे हैं


मुझे  रास्ता दो भाई


मेरा वचन है- जब मैं बह निकली


तो तुम्हारे सौंदर्य को कम न होने दूंगी


तुम्हारे पगों से बहती रहूंगी


स्वयं को उच्चतम न होने दूंगी


तुम अपने रौद्र से संपूर्ण जगत में महा ऊर्जा भर देते हो 


मेरी ऊर्जा पर क्यों बंधन डाल रहे हो


मेरा चंचल स्वभाव है तुम जानते हो 


स्वयं में क्यों संभाल रहे हो


शिव और जोर से मुस्काये-


‘क्यों तड़प रही हो गंगे

 
तुम तो स्वयं बिखरी पड़ी हो


तुम्हें तो स्वयं को समेटना भी नहीं आता


बिखरी ऊर्जा से तुम महा ऊर्जा की बात करती हो


रास्ता मिल जायेगा तुम्हें 


नीचे जाने का क्या है,


किसी भी देव तरू की झुकी शाखा को पकडो और बह निकलो


निमन से निमनतर होना आसान


उच्च से उच्चतर होना अति कठिन’


‘परिहास करते हो शिव’,


गंगा रूष्ट हुई,


‘अं हूं तुम्हारा


तुम्हारी ही तरह मेरे लिये निमन क्या उच्चतम क्या


इन देव तरूयों नें खींचा है मुझे पाताल से


इन्होंने ही छोडा है मुझे आकाश में


उस उच्चतम आवस्था में भी मुझे विश्राम नहीं


तुम्हारे ये तरू खींच लायेंगे मुझे


फिर बरसूंगी बरखा बन कर


फिर बहूंगी गंगा बन कर


पहाडों में मैदानों में’


शिव हंसने लगे- 


‘पर चेता रहा हूं गंगे फिर न कहना 


शिव का भारी स्वर:

(शेष बाकी)

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Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on April 2, 2013 at 7:58pm

समझ गया। लेकिन रचना की निरंतरता में शिव हँसने  के बाद तत्काल गंभीर हो जाते हैं। और वह गंभीर दृश्य अगली कड़ी में है। आप का इंगित करना उचित है। धन्यवाद। सौरभ पांडेय जी आगे से ख्याल रहेगा।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 2, 2013 at 7:29pm

शिव हंसने लगे- 


‘पर चेता रहा हूं गंगे फिर न कहना 


शिव का भारी स्वर:

(शेष बाकी)

मेरा आशय उपरोक्त अंत से है.. .

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on April 2, 2013 at 6:59pm

धन्यवाद सौरभ पांडेय जी, आप के विचारों व मार्गदर्शन का सम्मान करता हूँ। मैं  सोच सकता हूँ और शायद नहीं भी  कि क्यों ऐसा  लिखा आप ने।  व्यथा के पूर्व कारणों व आगामी  प्रभावों को ढूँढना और बयान करना भी अपना कर्तव्य  मानता हूँ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 2, 2013 at 6:30pm

प्रतीकों पर सध रहा गल्प रोचक है.. .

व्यथा-कथा के धारावाहिक का अंत यों न करें.. .

शुभेच्छाएँ

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 30, 2013 at 10:17am

धन्यवाद केवल प्रसाद जी 

कुछ अन्वश्यक कारणों से देर हो गई 
आप की समालोचक टिपणी का धन्यवाद 
Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 27, 2013 at 9:35am

आदरणीय, डा0 स्वर्ण जे0 ओंकार  जी,  गंगा-शिव संवाद सुन्दर भाव,  आपको हार्दिक बधाई!  आपको सपरिवार प्रेम-सद्भावना के प्रतीक होली के पावन त्योहार पर बहुत बहुत शुभकामनाएं।

Comment by Dr. Swaran J. Omcawr on March 26, 2013 at 10:30pm

धन्यवाद मोहन जी 

आप को रचना पसंद आई 
आप का शुक्रिया 
सत्य कहते हैं आप। इस रचना को बयाँ करना मेरा कोई धार्मिक पर्योजन नहीं है।
गंगा हमारी राष्ट्रय धरोहर है। लेकिन हमारे स्वार्थ पूरण कृत्यों के कारण बर्बाद हो रही है। मैं मनाता हूँ कि इस का एक कारन हमारे धार्मिक अनुष्ठान भी है। धर्म के नाम पर हम इस में क्या क्या प्रवाह कर रहे हैं।
मेरा निवेदन है इस कथा को धार्मिक दृष्टि से न पढ़ा जाए।
Comment by मोहन बेगोवाल on March 26, 2013 at 9:42pm

डाक्टर साहिब जी,

इस लड़ी को आगे बढ़ाने के लिए धन्यवाद ,इन प्रवचनों में स्वछता और स्पष्टता के दर्शन होते है, बिना किसी स्वार्थ को साधे  

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