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तुम भी हो चुप- चुप , और मैं भी हूँ मौन /

जाने फिर बोल रहा कौन //
मिलते थे कहने को हम दोनों नित्य प्रति / 
लकिन संबंधों को शायद ही मिली गति /
तुम ही जब कर सकी कोई आरम्भ नहीं /
मेरे मन को लगा इति का अवलम्ब सही /
देहरी से औप्चारिक्तायों की बंधे रहे  , दोनों के आचरण दोनों के कुंठित मौन //
तुम भी हो चुप- चुप मैं भी हूँ  मौन , जाने फिर बोल रहा कौन //
परिचय के गाँव दो बसे किन्तु अलग अलग /
जिनको संबोधन की राह  नहीं कोई सुलभ /
जैसे दो तट की हम अनुबंधित नाव थे /
जग में प्रतिबंधो में पलते दो पाँव थे /
विधिना के हाथ की जैसे सीधी दो रेखाएं  , अंतर के मध्य जियें अनुशासित मौन //
तुम भी हो चुप- चुप और मैं भी हूँ  मौन , जाने फिर बोल रहा कौन //
 
बीत गयीं ऋतुएं सब लेकिन क्या पायें हैं भूल /
जब जब सहलायीं सुधियाँ पायें हैं हमने शूल /
मेरा ही क्लेश बनी मेरी संचित निधियां /
तेरे कुछ पत्र शेष और भीगी स्मृतियाँ /
बदल गए परिचय सब सारे सन्दर्भ वे ,  लेकिन अब भी अपने हैं परिचित मौन // 
तुम भी हो चुप- चुप और मैं भी हूँ  मौन , जाने फिर बोल रहा कौन //
 
तेरी अगवानी को हैं खड़े सम्बन्ध नए / 
चाहे स्पर्श तेरा इक सारे अनुबंध नए/
जायेंगें टूट अब अंकुश और बंधन /
फूटेंगें मौन तेरे चहकेंगें सम्बोधन  /  
तुम तो  बंध मेंहदी संग पाओगी मुक्ति सहज , लेकिन अब कौन मेरा तोड़ेगा शापित मौन //
तुम भी हो चुप- चुप और मैं भी हूँ  मौन , जाने फिर बोल रहा कौन //

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Comment by Dr.Prachi Singh on November 21, 2012 at 10:08am

आदरणीय अजय शर्मा जी, 

अंतर्मन के नाज़ुक भावों की जस की तस सुकोमल, सुन्दर अभिव्यक्ति हेतु हार्दिक बधाई। 
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on November 20, 2012 at 3:38pm

तुम भी हो चुप- चुप और मैं भी हूँ  मौन , जाने फिर बोल रहा कौन //

bahut khoob, sundar prastuti, badhai shreeman saadar 

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