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राजधानी जो आये पता कर चले--(ग़ज़ल)-- मिथिलेश वामनकर

212—-212---212---212

 

पूछते रह गए आप क्या कर चले?

वो मेरी जिंदगी हादसा कर चले.

 

 गुमटियाँ शह्र से जो हटा कर चले

वो समझते रहे, वो भला कर चले

 

अफसरी इस तरह शान से हो रही

सर झुका कर चले, दुम हिला कर चले 

 

रोटियाँ बँट रहीं या नहीं देख लो

राजधानी जो आये पता कर चले

 

बाद मुद्दत मिले हैं, मगर इस तरह

जख्म जो भर रहा था, हरा कर चले

 

मंज़िलें खुद क़दम चूम लेंगी अगर

मुश्किलों में भी इक रासता कर चले

 

ये सियासत का घर, ये हुकूमत का दर

लोग जितने मिले, फासला कर चले

 

वैसे माँ बाप तो टोकने से रहें  

जा रहें है तो थोड़ा बता कर चले

 

फ़ासला तय हुआ और भी खुशनुमा

जो कदम से कदम हम मिला कर चले

 

ये जहाँ खूबसूरत लगा इस कदर 

जब भी आँखों से चश्मा हटा कर चले

 

वो जो देते रहे बारिशों की दुआ

धूप की चादरें भी बिछा कर चले

 

इस कदर तल्खियाँ देख अच्छी नहीं 

बागबां इक कली तो खिला कर चले

 

पेट की आग उनकी बुझे या नहीं

गर्म चूल्हा मगर वो बुझा कर चले

 

कुछ तसल्ली उन्हें दे सके या नहीं

हम मगर हाथ उनका दबा कर चले

 

ज्यूँ परिन्दों को फिर लौटना ही न हो

इस तरह से शज़र वो हिला कर चले

 

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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by Jayprakash Mishra on October 14, 2015 at 8:17pm
Behatareen gazal hai adarniya Mithilesh ji
Comment by kanta roy on October 14, 2015 at 8:11pm
मंजिलें खुद कदम चूम लेगी अगर
मुश्किलों में भी जब रासता कर चले------- वाह !!!! बहुत खूब शेर हुई है ये भी । इस शानदार गजल के लिए बधाई कबूल किजिए ।
Comment by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on October 14, 2015 at 6:15pm
मिथिलेश जी ! बहुत ही शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई....अफसरी इस तरह शान से हो रही
सर झुका कर चले, दुम हिला कर चले .....बहुत खूब....212 -212-212-212 की व्यवस्था का निर्वाह सम्पूर्ण ग़ज़ल में बड़ी ही खूबसूरती के साथ किया गया है....

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