• ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)

    122 - 122 - 122 - 122 जो उठते धुएँ को ही पहचान लेतेतो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते*न तिनके जलाते तमाशे की ख़ातिरन ख़ुद आतिशों के ये बोहरान लेते*ये घर टूटकर क्यूँ बिखरते हमारेजो शोरिश-पसंदों को पहचान लेते*फ़ना हो न जाती ये अज़्मत हमारीतज़लज़ुल की आहट अगर जान लेते*न होता ये मिसरा यूँ ही…

    By अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी

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  • दोहा सप्तक. . . लक्ष्य

    दोहा सप्तक. . . . . लक्ष्यकैसे क्यों को  छोड़  कर, करते रहो  प्रयास ।लक्ष्य  भेद  का मंत्र है, मन  में  दृढ़  विश्वास ।।करते  हैं  जो जीत से, लक्ष्यों का शृंगार ।उनको जीवन में कभी, हार नहीं स्वीकार ।।आज किया कल फिर करें, लक्ष्य हेतु संघर्ष ।प्रतिफल है प्रयासों का , लक्ष्य प्राप्ति पर हर्ष ।।देता है…

    By Sushil Sarna

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  • मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    २१२२/२१२२/२१२२**आग में जिसके ये दुनिया जल रही हैवह सियासत कब तनिक निश्छल रही है।१।*पा लिया है लाख तकनीकों को लेकिनऔर आदम युग में दुनिया ढल रही है।२।*क्लोन का साधन दिया विज्ञान ने परमौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है।३।*मान मर्यादा मिटाकर पाप करती(भूल जाती मान मर्यादा सदा वह)भूख दौलत की जहाँ भी पल रही…

    By लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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  • पहलगाम ही क्यों कहें - दोहे

    रक्त रहे जो नित बहा, मजहब-मजहब खेल।उनका बस उद्देश्य यह, टूटे सबका मेल।।*जीवन देना कर सके, नहीं जगत में कर्म।रक्त पिपाशू लोग जो, समझेंगे क्या धर्म।।*छीन किसी के लाल को, जो सौंपे नित पीर।कहाँ धर्म के मर्म को, जग में हुआ अधीर।।*बनकर बस हैवान जो, मिटा रहे सिन्दूर।वही नीच पर चाहते, जन्नत में सौ…

    By लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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  • सदस्य कार्यकारिणी

    ग़ज़ल - वो कहे कर के इशारा, सब ग़लत ( गिरिराज भंडारी )

    २१२२    २१२२      २१२गुफ़्तगू चुप्पी इशारा सब ग़लतबारहा तुमको पुकारा सब ग़लत ये समंदर ठीक है, खारा सहीताल नदिया वो बहारा सब ग़लत रोज़ डूबे, रोज़ लाया खींच करएक दिन क़िस्मत से हारा, सब ग़लत एक क्यारी को लबालब भर दियेभोगता जो बाग़ सारा, सब ग़लत मान  जायेंगे  ग़लत वो  हैं, अगरआप जो कह दें दुबारा, सब ग़लत तुम रहे…

    By गिरिराज भंडारी

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  • ग़ज़ल नूर की - गुनाह कर के भी उतरा नहीं ख़ुमार मेरा

    1212 1122 1212 112/22 .गुनाह कर के भी उतरा नहीं ख़ुमार मेरा नशा उतार ख़ुदाया नशा उतार मेरा. . बना हुआ हूँ मैं जैसा मैं वैसा हूँ ही नहीं    मुझे मुझी सा बना दे गुरूर मार मेरा. . ये हिचकियाँ जो मुझे बार बार लगती हैं पुकारता है कोई नाम बार बार मेरा.   . मेरी हयात का रस्ता कटा है उजलत में मुझे भरम था…

    By Nilesh Shevgaonkar

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  • मनहरण घनाक्षरी

    रिश्तों का विशाल रूप, पूर्ण चन्द्र का स्वरूप,छाँव धूप नूर-ज़ार, प्यार होतीं बेटियाँ।वंश  के  विराट  वृक्ष के  तने  पे  डाल  और,पात  संग  फूल सा  शृंगार होतीं बेटियाँ।बाँधती  दिलों  की  डोर, देखती न ओर छोर,रेशमी  हिसार  ताबदार  होतीं बेटियाँ।दो  घरों  के  बीच  एक   सेतु सी कमानदार,राह  फूल-दार…

    By Ashok Kumar Raktale

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  • दोहा षष्ठक. . . . आतंक

     नहीं दरिन्दे जानते , क्या होता सिन्दूर । जिसे मिटाया था किसी ,  आँखों का वह नूर ।। पहलगाम से आ गई, पुलवामा की याद । जख्मों से फिर दर्द का, रिसने लगा मवाद ।। कितना खूनी हो गया, आतंकी उन्माद । हर दिल में अब गूँजता,बदले का संवाद ।। जीवन भर का दे गए, आतंकी वो घाव । अंतस में प्रतिशोध के, बुझते नहीं…

    By Sushil Sarna

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  • ग़ज़ल

    2122 1122 1122 22आप भी सोचिये और हम भी कि होगा कैसे,,हर किसी के लिए माहौल ये उम्दा कैसे।। क्या बताएं तुम्हें होता है तमाशा कैसे,,,वास्ते इसके लिए होता दिखावा कैसे।। लोग उलझन में मुझे देखके होते ख़ुश हैं,,,,कुछ तो इस सोच में रहते हैं रहेगा कैसे मैं भी कामिल हूँ यहाँ और हो तुम भी कामिल,कोई आमिल ही…

    By Mayank Kumar Dwivedi

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  • सदस्य कार्यकारिणी

    एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]

    एक धरती जो सदा से जल रही है   ********************************२१२२    २१२२     २१२२ 'मन के कोने में इक इच्छा पल रही है'पर वो चुप है, आज तक निश्चल रही है एक  चुप्पी  सालती है रोज़ मुझकोएक चुप्पी है जो अब तक खल रही है बूँद जो बारिश में टपकी सर पे तेरे    सच यही है बूंद कल बादल रही है इक समस्या कोशिशों…

    By गिरिराज भंडारी

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