देखे जो एक दिन का भी जीना किसान का
समझे तू कितना सख़्त है सीना किसान का
मिट्टी नहीं अनाज उगलती है तब तलक
जब तक मिले न उस में पसीना किसान का
बारिश की आस और कभी है उसी का डर
यूँ बीतता हर एक महीना किसान का
कब से उगा रहा है कपास अपने खेत में
कुर्ता मगर है आज भी झीना किसान का
समतल ज़मीन पर ये लकीरें अजब-ग़ज़ब
देखे ही बन रहा है करीना किसान का
है हिम्मती है हिम्मती है हिम्मती है ये
हिम्मत में और सानी कोई ना किसान का
तेरी चुनर में रंग, न गहनों में ताब वो
जैसी लिए है खेत, ओ हसीना, किसान का
#मौलिक एवं अप्रकाशित
बृजेश कुमार 'ब्रज'
आदरणीय अजय जी किसानों के संघर्ष को चित्रित करती एक बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं ....
Jun 4
अजय गुप्ता 'अजेय
अपने शब्दों से हौसला बढ़ाने के लिए आभार आदरणीय बृजेश जी
Jun 4
Ravi Shukla
आदरणीय अजय जी किसानों को केंद्र में रख कर कही गई इस उम्दा गजल के लिए बहुत-बहुत बधाई ।आपकी गजल पर आाई हुई टिप्पणियों से बहुत कुछ सीखने काे मिला आपकी इस टिप्पणी से सहमत हुँ और आपकी सोच से संतुष्ट भी कि निरंतर विमर्श गुणवत्ता वृद्धि करते हैं। तभी खुल कर अपनी पाठकीय टीप रखने का मन भी होता है । मैं भी ये मानता हूँ कि परिष्करण एक सतत प्रक्रिया है ।
जहां कहन में कुछ अटकाव लगा उस पर चर्चा हो चुकी है । हां एक बात वाक्य विन्यास के हिसाब से देखें तो कथ्य की मांग ये है
इस डर में किसान के साल महीने जायें ( निकल रहे हैं ) मुझे बहुवचन समझ में आ रहा है । आखिरी शेर काे कुछ समय और दीजिये ।
अशआर में कहन का तरीका बहुत अच्छा लगा । पुनः बधाई । सादर
Jun 9