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मेरा घेरा ये बाहों का तेरा बन्धन नहीं है
इसे तू तोड़ के जाये मुझे अड़चन नहीं है
समय की धार ने बदला है साँपों को भी शायद
वो लिपटे हैं मेरी बाहों से जो चन्दन नहीं है
जिन्हों ने कामनाओं की जकड़ स्वीकार की थी
उन्हीं की भावनाओं में बची जकड़न नहीं है
न लो गंभीरता से तुम बुढ़ापे की लड़ाई को
अकेलेपन को भरता हूँ, यहाँ अनबन नहीं है
सभी राहों में कांटे, फूल पत्थर है नदी भी
ये दुनिया छोड़ जाने का कोई कारन नहीं है
अगर चलती हैं साँसें तो कभी पूछो तो खुद से
किसी की वेदना में क्यूं यहाँ क्रन्दन नहीं है
किसी की दृष्टि बाधित है, किसी की सोच लंगड़ी
दिखाई साफ़ दे ऐसा कोई दरपन नहीं है
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मौलिक एवं अप्रकाशित
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
अनुज बृजेश , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभार , मेरी कोशिश हिन्दी शब्दों की उपयोग करने की है , आपकी सलाह अच्छी है , आपका आभार
Jun 10
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय रवि भाई ग़ज़ल पर उपस्थिति हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका आभार
आदरणीय आपकी शंका निर्मूल नहीं है , सोचता हूँ कुछ और , अगर आपको सूझे तो आप भी बता सकते हैं
Jun 10
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपकी प्रस्तुति पर आने में मुझे विलम्ब हुआ है. कारण कि, मेरा निवास ही बदल रहा था. तभी अप्रिहार्य कारणों से पैत्रिक गाँव जाना पड़ गया. खैर..
आपकी प्रस्तुति के कई शेरों पर अनायास ही वाह-वाही निकल रही है. यह अवश्य है कि मैं ’दरपन’ शब्द को लेकर मिले सुझाव से बहुत सहमत नहीं हूँ. वस्तुतः, गजल के नाम पर हम उर्दू-फारसी-अरबी शब्दों को लेकर जितने आग्रही हो जाया करते हैं, उसी आवृति से हम हिंदी भाषा में मान्य हो चुके शब्दों और भाषा-व्याकरण के प्रति सनिष्ठ नहीं होते. अतः अपनी समझ के आधार पर अपने विचारों को दृढ कर लेते हैं. ’दर्पण’ तत्सम शब्द है, जबकि इसी शब्द का ’दरपन’ तद्भव रूप है. यदि हम तद्भव को नकारने लगे, तो दूध, काँटा, बछड़ा आदि-आदि जैसे सैकड़ों शब्दों को त्यागना पड़ जाएगा. अलबत्ता, ’कारण’ को ’कारन’ लिखा जाना उचित नहीं है. लेकिन गजल में ’न’ और ’ण’ की तुकान्तता ली जा सकती है. जैसे ’त’ और ’थ’ की तुकान्तता ले ली जाती है.
शुभातिशुभ
yesterday