हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है
पहचान छुपा के जीता है, पहचान में फिर भी आता है
दिल टूट गया है- मेरा था, आना न कोई समझाने को,
नुक़सान में अपने ख़ुश हूँ मैं, क्या और किसी का जाता है
संतोष सहज ही मिल जाए, तो कद्र नहीं होती इसकी,
संतोष की क़ीमत वो जाने, जो चैन गँवा कर पाता है
आज़ाद परिंदे पिंजरे में, जी पाएँ न पाएँ क्या मालूम,
जो धार से पीते है उनको, कासे का पिया कब भाता है।
हर बार बहाना करते हो, हर बार मुझे झुठलाते हो
पर शहर से मेरे गुज़रो तुम, तो मुझको पता चल जाता है।
पर्वत भी मिलेगा सागर में, सूरज भी कभी होगा ठण्डा,
हस्ती तो तेरी फिर है ही क्या, क्या सोच के तू इतराता है।
क्यों दोष किसी को देते हैं, क्यों नाम किसी का लेते हैं,
जिस सूत ने हम को जकड़ा है, वो सूत हमीं ने काता है।
#मौलिक एवं अप्रकाशित
अजय गुप्ता 'अजेय
अपने प्रेरक शब्दों से उत्साहवर्धन करने के लिए आभार आदरणीय सौरभ जी। आप ने न केवल समालोचनात्मक प्रतिक्रिया दी है अपितु सुधार के प्रति जागरूक भी किया है।
सतत धन्यवाद
May 28
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय अजय भाई , अच्छी ग़ज़ल हुई है , हार्दिक बधाई ,
क्यों दोष किसी को देते हैं, क्यों नाम किसी का लेते हैं,
जिस सूत ने हम को बाँधा है, वो सूत हमीं ने काता है ... बेहतरीन शेर कहा , बहुत बधाई
May 30
अजय गुप्ता 'अजेय
बहुत बहुत आभार आदरणीय गिरिराज जी
May 30