ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं

मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
मगर पाण्डव हैं मुट्ठी भर, खड़े हैं.
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हम इतनी बार जो गिर कर खड़े हैं
मुख़ालिफ़ हार कर शश्दर खड़े हैं.      शश्दर-आश्चर्यचकित, स्तब्ध
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कभी कोई बसेगा दिल-मकां में
हम इस उम्मीद में जर्जर खड़े हैं.
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ऐ रावण! अब तेरा बचना है मुश्किल
तेरे द्वारे पे कुछ बंदर खड़े हैं.
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उसे लगता है हम को मार देगा
हम अपने जिस्म से बाहर खड़े हैं.
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मुझे क़तरा समझ बैठा है नादाँ
मेरे पीछे महासागर खड़े हैं.
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ख़ुदा दुनिया से कब का जा चुका है
ख़ुदा के नाम के पत्थर खड़े हैं.
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नए रब के नए पैग़ाम लेकर
हर इक नुक्कड़ पे पैग़म्बर खड़े हैं.
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मौलिक/ अप्रकाशित 

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  • Ravi Shukla

    आदरणीय नीलेश जी, अच्छी  ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें. अपनी टिप्पणी से पहले  इस पर आई हुई टिप्पणियां  पढ़ी अच्छा लगा । तीसरा शेर बहुत अच्छा लगा । ऐ का वज़्न गिराना हमें व्यक्तिगत रूप से असहज लगता  है तो चौथे शेर में  भी लगा  एक विनम्र सुझाव है  दशानन अब तिरा बचना है मुश्किल

    कहूँ क्या शेर की तासीर पर मैँ 

    तिरी डी पी में राहत सर खड़े है 

    भाव में तिरी को आपकी पढ़ियेगा बहर की मजबूरी है :-)

  • Nilesh Shevgaonkar

    धन्यवाद आ. रवि जी,
    ग़ज़ल तक आने और उत्साह वर्धन का धन्यवाद ..
    ऐ पर आपसे सहमत हूँ ..कुछ सोचता हूँ .. 
    सादर  

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. रवि जी ,

    मिसरा यूँ पढ़ें 
    .
    सुन ऐ रावण! तेरा बचना है मुश्किल..
    अलिफ़ वस्ल से काम हो गया 
    सादर