ओ.बी.ओ. लखनऊ चैप्टर की मासिक गोष्ठी – अप्रैल 2016 – एक प्रतिवेदन
प्रस्तुति- डा0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव
चालाक शिकारी की तरह ग्रीष्म आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ रहा था. लोक मानस को खतरे की गंध मिल गयी थी. कुछ लोग अकर्मण्य होकर घरों में दुबके रहे. कुछ साहसिकों को रोमांच पसंद था. वे काव्य शस्त्रों से सज्जित होकर रविवार दिनांक 17 अप्रैल 2016 को हिन्दी मीडिया सेंटर, गोमतीनगर के अरण्य में दाखिल हुए और उन्होंने ओ बी ओ-लखनऊ चैप्टर के तत्वावधान में साहित्य की ऐसी रस निर्झरिणी बहाई कि ग्रीष्म पानी-पानी हो गया और कुछ देर के लिए लजाकर ओट हो गया.
कार्यक्रम का संचालन मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज ‘ ने सरस्वती वंदना से किया. सबसे पहले डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की प्रसिद्ध कविता ‘बावरा अहेरी’ पर अपना आलेख ‘नए प्रतीकों के पहल में-बावरा अहेरी ‘ पढ़ा और साहित्य में प्रयोगवाद के पदार्पण की याद ताजा कर दी.
सूर्य एक ऐसा बावरा अहेरी है जिससे संसार की कोई भी वस्तु अछूती नहीं है I उसका विस्तृत जाल निखिल संसृति को अपने में समेट लेता है I इस शिकारी के लिए कुछ भी अबध्य नहीं है I ऐसे दुर्धर्ष शिकारी के लिए भी कवि के पास एक चुनौती है I वह कहता है कि हे बावरे आखेटक तू हर जगह अपनी स्वर्ण रश्मि का जाल फैलाता है पर क्या तू मेरे मन के विवर में चुपके से दुबकी हुयी कलौंस (अन्धेरा, स्याह्पन, कालिमा ) को अपना शिकार नहीं बनाएगा और उसे यथावत छोड़ कर चला जाएगा I
कार्यक्रम के दूसरे चरण में काव्य-पाठ का आयोजन था. संचालक मनुज के आवाहन पर प्रदीप कुमार शुक्ल ने अपने रचनागत काव्य ‘ फूल और काँटा’ के कुछ अंश पढ़े जिसमें फूल और काँटे की एक ही स्थान पर उत्पत्ति की संगति और विसंगति दोनों पक्षों को बड़े ही तर्कपूर्ण तरीके से उकेरा गया है. कांटे की आत्म-कथा की एक बानगी यहाँ प्रस्तुत की जा रही है.
उस पथ की शोभा हूँ मैं वीर जिसे अपनाते हैं
देखकर मेरा रूप नुकीला कायर दिल हिल जाते हैं
वीर मनुज खातिर दिव रजनी फूलों पर देता पहरा
विजय पुष्प वरना ले जाता कोई भी ऐरा-गैरा
ओ बी ओ-लखनऊ चैप्टर की गोष्ठी में पहली बार पधारे, प्रसिद्ध गज़लकार कुंवर कुसुमेश के प्रिय शिष्य शैलेन्द्र सिंह ‘शैल’ ने एक तरही गजल सुनाया जिसके कुछ शेर इस प्रकार हैं -
बेजार इस कदर भी न थी ज़िन्दगी यहाँ
अपनों की बेरुखी ने उबरने नहीं दिया
वादे वफ़ा की राह पर हम चल पड़े मगर
तंजों ने राह रोक ली बढ़ने नहीं दिया
इक आपके सिवा न चढ़े रंग दूसरा
हमने गुलाल और को मलने नहीं दिया ( गिरह का शेर )
संचालक मनुज कवियों का आवाहन अपनी रोचक कविताओं से करते रहे किंतु जब उनकी बारी आई तो वे अचानक संजीदा हो गए. स्वर्ग - नरक पर कवियों ने पहले भी बड़ा विमर्श किया है. ग़ालिब ने तो यहाँ तक कह दिया कि - –हमको मालूम है जन्नत की हकीक़त लेकिन, दिल के बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है.. कुछ ऐसी ही सोच के साथ मनुज कहते हैं –
बड़े धोखे हैं जन्नत में तुम्हारी
यकीनन अब न आऊंगा दुबारा
कवयित्री कुंती मुकर्जी जिनका सद्य:प्रकाशित उपन्यास ‘अहिल्या-एक सफ़र‘ उन्हें एक बहुमुखी साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित करने की ओर बढ़ रहा है, अस्वस्थ होने के कारण इस संध्या का गौरव नहीं बन सकी किन्तु उनकी ‘मुखौटे’ शीर्षक कविता का पाठ कर डॉ० शरदिंदु मुकर्जी ने उनकी आभासी उपस्थिति सफलतापूर्वक दर्ज की. कविता का एक अंश प्रस्तुत किया जा रहा है –
वक्त की दस्तक हम सुन नहीं पाते ?
रह जाते हैं -----
जन्मों के भूल- भुलैय्ये में ---ii
हम ढरकते मुखौटे लिये हाथ में
भटके--- भटके ----
डॉ. सुभाष चन्द्र गुरुदेव ने ‘अंधेरा अन्दर तक घुस गया गाँव में ‘ की लाक्षणिक उक्ति से ‘विसंगति ‘ शीर्षक कविता में बड़े चुटीले तंज किये. देश में आतंकी घुसपैठ को लेकर उनकी चिंता कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त हुयी –
उसके बढ़ते कदम क्यों नहीं रोकते
सीमा बाहर ही उसको नहीं टोकते
सार्थक प्रतिरोध करना कर्तव्य है
अनजान आहट पर कुत्ते तक भोंकते
लगे रहे तुम किसी दूसरे दांव में
अंधेरा अन्दर तक घुस गया गाँव में
डॉ शरदिंदु मुकर्जी ने अतुकांत शैली में अपनी प्रतीकात्मक रचना ‘शीशमहल’ का पाठ किया –
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मेरे लहूलुहान पैरों को
कोई शिकायत नहीं,
बस बटोर रहा हूँ
काँच के इन टुकड़ों को
इनकी धार, इनकी चमक और खनक से
बनेगा नया शीशमहल
जिसके रास्ते में खिलेंगे सुर्ख गुलमोहर,
मेरे सपनों के ख़ून की ताज़गी लिए----------
अब बारी थी ग़ज़ल के सुकुमार शायर आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ की . उन्होंने पहले अपने मिजाज से मुख्तलिफ एक गीत सुनाया. आहत का स्वर इतना मधुर और सुरीला था कि उपस्थित सभी कवि गीत के भाव के साथ मानो किसी अदृश्य धारा में बहते चले गये. गीत की कुछ पंक्तियाँ उदाहरण स्वरुप प्रस्तुत हैं –
हम तुम्हें मीत मनाने आये
प्रीति की रीत निभाने आये
जो अंतस की पीड़ा हर ले
व्यथित हृदय आनंदित कर दे
हम वही जीत दिलाने आये
प्रीति की रीत निभाने आये
अंत में डॉ0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने मालिनी छंद पर आधारित रामाख्यान का वह प्रसंग सुनाया जहाँ वन कुटीर में सीता को न पाकर राम उद्विग्न होते हैं और सीता को खोजने का संकल्प करते हैं. छंद की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –
सजल सुमन सी थी तात ! सीता पुनीता I
जलज नयन वाली धीर शांता विनीता I
लखन तुम उसे ऐसे कहाँ छोड़ आये
विपिन उटज में हा ! हा ! नहीं प्राण सीता II
इसके बाद उन्होंने ‘अभिलाषा ‘ शीर्षक से एक गीत पढ़ा, जिसकी रचना चार चौकलों से हुयी थी. गीत की बानगी निम्न प्रकार प्रस्तुत की जा रही है –
उड़ता भटके बादल सा मन
छा जाता नयनों में सावन
जलता अंतस में है अलाव
भीतर बाहर सब पागलपन
भूलूंगा मैं यह सकल व्यथा चिर निद्रा में बेसुध होकर
सूने आँगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर
मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर
काव्यास्त्रों से पराभूत ग्रीष्म का आतंक धीरे धीरे ख़त्म हो चला था. घर में दुबके लोग बाहर नज़र आने लगे थे. कवि समुदाय विजेता की भाँति अरण्य से बाहर आया. और चलते-चलते पण्डित जी के ठेले पर पकौड़े के साथ गरम चाय की चुस्की लेकर सब ने 22 मई को होनेवाले ओ.बी.ओ.लखनऊ चैप्टर के वार्षिकोत्सव को सफल बनाने का प्रण किया.
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