साँसें जब करने लगीं, साँसों से संवाद
जुबाँ समझ पाई तभी, गर्म हवा का स्वाद
हँसी तुम्हारी, क्रीम सी, मलता हूँ दिन रात
अब क्या कर लेंगे भला, धूप, ठंढ, बरसात
आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ
पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ
सिहरें, तपें, पसीजकर, मिल जाएँ जब गात
त्वचा त्वचा से तब कहे, अपने दिल की बात
छिटकी गोरे गाल से, जब गर्मी की धूप
सारा अम्बर जल उठा, सूरज ढूँढे कूप
प्रिंटर तेरे रूप का, मन का पृष्ठ सुधार
छाप रहा है रात दिन, प्यार, प्यार, बस प्यार
तपता तन छूकर उड़ीं, वर्षा बूँद अनेक
अजरज से सब देखते, भीगा सूरज एक
भीतर है कड़वा नशा, बाहर चमचम रूप
बोतल दारू की लगे, तेरा ही प्रारूप
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(मौलिक एवम् अप्रकाशित)
राजेश 'मृदु'
अद्भुत रचना है आपकी, हार्दिक बधाई, सादर
Jul 15, 2013
Dr Lalit Kumar Singh
हार्दिक बधाई, सादर
Jul 15, 2013
Ashok Kumar Raktale
आदरणीय धर्मेन्द्र जी सादर, सभी दोहे सुन्दर हैं. श्रृंगार के साथ ही कहीं कहीं हास्य भी उभर रहा है.बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
Jul 15, 2013
लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
आहूत सुन्दर हास्य रस और श्रृंगार रस का सम्मिलित रूप, वाह बहुत खूब !मन के भा गए, हार्दिक बधाई स्वीकार करे
श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी | सादर
Jul 15, 2013
बसंत नेमा
आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ
पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ
आ0 धर्मेन्द्र जी बहुत सुन्दर बहुत खूब .... बधाई शुभकामनाये
Jul 16, 2013
Shyam Narain Verma
Jul 16, 2013
जितेन्द्र पस्टारिया
श्रंगार रस में वास्तविकता पर सीधी चोट करते हुए सुंदर दोहे के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय धर्मेन्द्र जी .....
Jul 16, 2013
Vindu Babu
आपके दोहे पढ़कर मुस्कान आई इसके लिए आपका आभार।
आदरणीय सबसे पहले नजर 'शृंगार' शब्द पर पड़ी, पहले लगा कुछ गड़बड़ है,फिर टाइप किया तो लगा वही तो है,पर जब आदरणीय रक्ताले जी और आदरणीय लड़ीवाला जी और आदरणीय जितेन्द्र जी की प्रतिक्रियाएं पढ़ीं तो कई विसंगतियां मन में आई कि शुद्ध है कौन सा-श्रंगार,श्रृंगार या फिर शृंगार!
क्षमा करे महोदय मुझे लगता है श्रृंगार तो बिल्कुल नहीं होगा। कृपया स्पष्ट करें।
बात छोटी सी है आदरणीय पर हिंदी साहित्यकारों का दायित्व है कि अपनी हिंदी को इस तरह की त्रुटियों के मलिन धब्बों से सुरक्षित रखने का प्रयास करें,जो अब बहुत बार गोचर होने लगे हैं।
सादर
Jul 16, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
श्रृंगार या श्रंगार इत्यादि गलत हैं।
Jul 17, 2013
Vindu Babu
आदरणीय रक्ताले महोदय जैसे साहित्य एवं भाषा मर्मज्ञ के द्वारा उस तरह (श्रृ) से लिखना मेरे संदेह का कारण बना था।
सादर
Jul 17, 2013
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
धरम करम पर जोर दें, नीति-रीति रख ताक
रह-रह पिनक उभारता, मौसम भी बेबाक .. ... . .
शृंगार रस के दोहों पर दिल से वाह-वाह, आदरणीय धर्मेन्द्र भाई.. !
Jul 18, 2013
बृजेश नीरज
आदरणीय धमेन्द्र जी आपका लेखन एक मिसाल है। आपको पढ़ना सदैव तोषदायी व सुखद रहता है। इस रचना पर आपको हार्दिक बधाई।
हम हिन्दी भाषा भाषी हिज्जों को लेकर कितने लापरवाह हैं यह चर्चा उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। लोग लेखन करते हैं परन्तु लिपि के अक्षरों का सही ज्ञान नहीं रखते। बस भ्रान्तियों को सीढ़ी बनाकर आगे चलते जाते हैं।
आपने जो मार्गदर्शन दिया है वह बहुत से गुमराह लोगों को रास्ता दिखाएगा।
सादर!
Jul 21, 2013
Ketan Parmar
आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ
पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ
bhot hi umda upma di hai pati parmeshwar ko
Jul 22, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बहुत बहुत शुक्रिया Rajesh Kumar Jha जी
Jul 27, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
धन्यवाद Dr Lalit Kumar Singh जी
Jul 27, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बहुत बहुत शुक्रिया Ashok Kumar Raktale जी
Jul 27, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बहुत बहुत धन्यवाद Laxman Prasad Ladiwala जी
Jul 27, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बहुत बहुत शुक्रिया बसंत नेमा जी
Jul 27, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बहुत बहुत धन्यवाद Shyam Narain Verma जी
Jul 27, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बहुत बहुत शुक्रिया जितेन्द्र 'गीत' जी
Jul 27, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बहुत बहुत धन्यवाद vandana tiwari जी
Jul 27, 2013
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
बहुत बहुत धन्यवाद Saurabh Pandey जी, स्नेह बना रहे
Jul 27, 2013