शृंगार रस के दोहे

साँसें जब करने लगीं, साँसों से संवाद

जुबाँ समझ पाई तभी, गर्म हवा का स्वाद

 

हँसी तुम्हारी, क्रीम सी, मलता हूँ दिन रात

अब क्या कर लेंगे भला, धूप, ठंढ, बरसात

 

आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ

पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ

 

सिहरें, तपें, पसीजकर, मिल जाएँ जब गात

त्वचा त्वचा से तब कहे, अपने दिल की बात

 

छिटकी गोरे गाल से, जब गर्मी की धूप

सारा अम्बर जल उठा, सूरज ढूँढे कूप

 

प्रिंटर तेरे रूप का, मन का पृष्ठ सुधार

छाप रहा है रात दिन, प्यार, प्यार, बस प्यार

 

तपता तन छूकर उड़ीं, वर्षा बूँद अनेक

अजरज से सब देखते, भीगा सूरज एक

 

भीतर है कड़वा नशा, बाहर चमचम रूप

बोतल दारू की लगे, तेरा ही प्रारूप

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(मौलिक एवम् अप्रकाशित)

  • राजेश 'मृदु'

    अद्भुत रचना है आपकी, हार्दिक बधाई, सादर

  • Dr Lalit Kumar Singh

    हार्दिक बधाई, सादर

  • Ashok Kumar Raktale

    आदरणीय धर्मेन्द्र जी सादर, सभी दोहे सुन्दर हैं. श्रृंगार के साथ ही कहीं कहीं हास्य भी उभर रहा है.बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

  • लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

    आहूत सुन्दर हास्य रस और श्रृंगार रस का सम्मिलित रूप, वाह बहुत खूब !मन के भा गए, हार्दिक बधाई स्वीकार करे 

    श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी | सादर 

  • बसंत नेमा

    आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ

    पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ 

    आ0 धर्मेन्द्र जी  बहुत  सुन्दर बहुत खूब .... बधाई शुभकामनाये 

  • Shyam Narain Verma

    बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..
  • जितेन्द्र पस्टारिया

    श्रंगार रस में वास्तविकता पर सीधी चोट करते हुए सुंदर दोहे के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय धर्मेन्द्र जी .....

  • Vindu Babu

    आदरणीय धर्मेंद्र महोदय सादर नमस्कार!
    आपके दोहे पढ़कर मुस्कान आई इसके लिए आपका आभार।
    आदरणीय सबसे पहले नजर 'शृंगार' शब्द पर पड़ी, पहले लगा कुछ गड़बड़ है,फिर टाइप किया तो लगा वही तो है,पर जब आदरणीय रक्ताले जी और आदरणीय लड़ीवाला जी और आदरणीय जितेन्द्र जी की प्रतिक्रियाएं पढ़ीं तो कई विसंगतियां मन में आई कि शुद्ध है कौन सा-श्रंगार,श्रृंगार या फिर शृंगार!
    क्षमा करे महोदय मुझे लगता है श्रृंगार तो बिल्कुल नहीं होगा। कृपया स्पष्ट करें।
    बात छोटी सी है आदरणीय पर हिंदी साहित्यकारों का दायित्व है कि अपनी हिंदी को इस तरह की त्रुटियों के मलिन धब्बों से सुरक्षित रखने का प्रयास करें,जो अब बहुत बार गोचर होने लगे हैं।
    सादर
  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    आदरणीया vandana tiwari जी, उपरोक्त दोनों शब्द एक ही हैं और सही हैं। केवल लिखने के भिन्न तरीकों के कारण अलग दिखाई पड़ते हैं। पहले वाला शब्द यूनिकोड में नहीं लिखा जा सकता क्योंकि ये कैरेक्टर यूनिकोड में मैप्ड ही नहीं है। तो लिखने का दूसरा तरीका ही अपनाना पड़ेगा।

    श्रृंगार या श्रंगार इत्यादि गलत हैं। 

  • Vindu Babu

    जी बिल्कुल सहमत हूं आपसे आदरणीय।
    आदरणीय रक्ताले महोदय जैसे साहित्य एवं भाषा मर्मज्ञ के द्वारा उस तरह (श्रृ) से लिखना मेरे संदेह का कारण बना था।
    सादर

  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    धरम करम पर जोर दें, नीति-रीति रख ताक

    रह-रह पिनक उभारता,  मौसम भी बेबाक .. ... . . 

    शृंगार रस के दोहों पर दिल से वाह-वाह, आदरणीय धर्मेन्द्र भाई.. ! 

  • बृजेश नीरज

    आदरणीय धमेन्द्र जी आपका लेखन एक मिसाल है। आपको पढ़ना सदैव तोषदायी व सुखद रहता है। इस रचना पर आपको हार्दिक बधाई।
    हम हिन्दी भाषा भाषी हिज्जों को लेकर कितने लापरवाह हैं यह चर्चा उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। लोग लेखन करते हैं परन्तु लिपि के अक्षरों का सही ज्ञान नहीं रखते। बस भ्रान्तियों को सीढ़ी बनाकर आगे चलते जाते हैं।
    आपने जो मार्गदर्शन दिया है वह बहुत से गुमराह लोगों को रास्ता दिखाएगा।
    सादर!

  • Ketan Parmar

    आशिक सारे नीर से, कुछ पल देते साथ

    पति साबुन जैसा, गले, किंतु न छोड़े हाथ
    bhot hi umda upma di hai pati parmeshwar ko

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    बहुत बहुत शुक्रिया Rajesh Kumar Jha जी

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    धन्यवाद Dr Lalit Kumar Singh जी

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    बहुत बहुत शुक्रिया  Ashok Kumar Raktale जी

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    बहुत बहुत धन्यवाद Laxman Prasad Ladiwala जी

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    बहुत बहुत शुक्रिया बसंत नेमा जी

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    बहुत बहुत धन्यवाद Shyam Narain Verma जी

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    बहुत बहुत शुक्रिया जितेन्द्र 'गीत' जी

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    बहुत बहुत धन्यवाद  vandana tiwari जी

  • धर्मेन्द्र कुमार सिंह

    बहुत बहुत धन्यवाद Saurabh Pandey जी, स्नेह बना रहे