"ओ बी ओ चित्र से काव्य तक छंदोंत्सव" में भाग लेने हेतु सदस्य इस समूह को ज्वाइन कर ले |
आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ पचासवाँ आयोजन है.
इस बार के आयोजन के लिए सहभागियों के अनुरोध पर अभी तक आम हो चले चलन से इतर रचना-कर्म हेतु एक विशेष छंद साझा किया जा रहा है। दूसरा छंद कुण्डलिया रहेगा ही। इसतरह कुल दो छंदों में से किसी एक के, या बन सके तो दोनों छंदों में अचना-कर्म करना है।
अर्थात, इस बार के दो छंद हैं - घनाक्षरी छंद (मनहरण घनाक्षरी) / कुण्डलिया छंद
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
21 अक्टूबर अगस्त’ 23 दिन शनिवार से 22 अक्टूबर’ 23 दिन रविवार तक
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
कुण्डलिया छंद के मूलभूत नियमों से परिचित होने के लिए यहाँ क्लिक करें
मनहरण घनाक्षरी छंद के मूलभूत नियमों से परिचित होने के लिए यहाँ क्लि...
जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 21 अक्टूबर अगस्त’ 23 दिन शनिवार से 22 अक्टूबर’ 23 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं।
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
Ashok Kumar Raktale
मनहरण घनाक्षरी
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इतना भी घूर के न, देखो ऐसे आँखे फाड़, बड़ी मुश्किलों से मैंने, शौहर ये पाया है।
कितने ही तप और, किये व्रत मैंने लोगों, तब जाके छोरा मेरी, चंगुल में आया है।
मुझको पसन्द है ये, इसको पसन्द हूँ मैं, दोनों में न अब कोई, तनिक पराया है।
आरती उतारता है, आँगन बुहारता है, केश भी सँवारता है,तभी मन भाया है।।
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रहें नहीं ऐंठकर, खटिया पे बैठकर, श्वेत केश देर तक, बालों में है खोजता।
जूएँ भी निकाले और, पिन भी जो माँगू मैं तो, घूम-घूम घर भर, आलों में है खोजता।
और कभी कंकड़ भी, माँगू तो साजन मेरा, डिब्बा-डिब्बा खोलकर, दालों में है खोजता।
भोला ऐसा मन का है, खोयी वस्तू अँधेरे की, दौड़-दौड़ जाकर उजालों में है खोजता।।
मौलिक /अप्रकाशित.
Oct 21, 2023
pratibha pande
कुण्डलिया छंद
Oct 22, 2023
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
मनहरण घनाक्षरी छंद
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सजनी सेंके धूप तो साजन केश सँवारे, दूर गाँव में ही दिखें ऐसे भले नजारे।।
नहा धोकर धूप में साजनी जब खोलती, काले धने ये केश तो लगते बड़े प्यारे।।
लेकिन दुख की बात, दिखते जूँयें लीख हैं, जब उनमें साजन बैठ के कंघी मारे।
डाल मेडीकर मार, दे दो कोई सीख भली, वर्ना नजर आयेंगे, उसे दिन में तारे।।
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भोला भाला खूब वह, करता सजनी सेवा, जीवन जीना चाहता, जैसे हो परछाई।
नर सा वो तो नार को, रखता है सम्मान दे, पर कहते हैं लोग क्यों, उसे भला लुगाई।।
वैसे तो ये नवयुग, पर क्योंकर जन को, ऐसी समतामूलक बात नहीं है भाई।।
सुन के जन की बात, प्रश्न उठा है मन में, कैसे सहज धुलेगी, मानस में जो काई।।
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मौलिक/अप्रकाशित
Oct 22, 2023