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आप भी सोचिये और हम भी कि होगा कैसे,,
हर किसी के लिए माहौल ये उम्दा कैसे।।
क्या बताएं तुम्हें होता है तमाशा कैसे,,,
वास्ते इसके लिए होता दिखावा कैसे।।
लोग उलझन में मुझे देखके होते ख़ुश हैं,,,,
कुछ तो इस सोच में रहते हैं रहेगा कैसे
मैं भी कामिल हूँ यहाँ और हो तुम भी कामिल,
कोई आमिल ही नहीं तो मैं बताता कैसे
हार जाता मैं उसे प्यार से कहता तू अगर,,,
तू लगा लड़ने मेरे यार तो हटता कैसे।।
ख़्वाब मे आज भी आता है उसी का चेहरा,,
फिर भला और किसी चेहरे को तकता कैसे।।
वो यहाँ है नहीं कोई न पता है उसका,,
ज़िंदा अल्फाज़ में है मान लूँ मुर्दा कैसे।।
स्वरचित/मौलिक
Ravi Shukla
आदरणीय मयंक जी ग़ज़ल की पेशकश के लिये मुबारकबाद पेश है ।
जानकारी के लिये बता दूँ कि ग़ज़ल से पहले उसके अरकान लिख दें तो पढ़ने वालों को आसानी रहती है और पटल का भी अनरोध यही है ।
शेर बहर के मुताबिक है आपका प्रयास भी अच्छा है अशआर में रंगे तगज्जुल / शेरियत के लिये निरंतर अभ्यास आवश्यक है।
शेर में वाक्य विन्यास भी खास होता है जैसे दूसरे शेर में होते खुश हैं या खुश होते हैं
लोग उलझन में मुझे देख के ख़ुश होते हैं इस तरह से भी बात कही जा सकती है। लेकिन सानी मिसरा पूरी तरह से चस्पा होता नहीं लगा मुझे । आखिरी शेर में किसकी बात की जा रही है आप नहीं बतायेंगे तब तक समझ नहीं आयेगी ।शेर अपने कथ्य को खुद बताये तो सार्थक होता है । ग़ज़ल के लिये पुनः बधाई । सादर ।
on Tuesday