2122 1122 1122 22
आप भी सोचिये और हम भी कि होगा कैसे,,
हर किसी के लिए माहौल ये उम्दा कैसे।।
क्या बताएं तुम्हें होता है तमाशा कैसे,,,
वास्ते इसके लिए होता दिखावा कैसे।।
लोग उलझन में मुझे देखके होते ख़ुश हैं,,,,
कुछ तो इस सोच में रहते हैं रहेगा कैसे
मैं भी कामिल हूँ यहाँ और हो तुम भी कामिल,
कोई आमिल ही नहीं तो मैं बताता कैसे
हार जाता मैं उसे प्यार से कहता तू अगर,,,
तू लगा लड़ने मेरे यार तो हटता कैसे।।
ख़्वाब मे आज भी आता है उसी का चेहरा,,
फिर भला और किसी चेहरे को तकता कैसे।।
वो यहाँ है नहीं कोई न पता है उसका,,
ज़िंदा अल्फाज़ में है मान लूँ मुर्दा कैसे।।
स्वरचित/मौलिक
Nilesh Shevgaonkar
आ. मयंक जी,
आप जैसे युवाओं को ग़ज़ल कहने का प्रयास करते देख कर बहुत अच्छा लगता है.
आप को अभी और समय देना चाहिए और प्रयास करना चाहिए कि कैसे परंपरागत शाइरी का लोच उत्पन्न हो सके.
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हर किसी के लिए माहौल हो अच्छा कैसे
वास्ते इसके लिए होता दिखावा कैसे... किसके वास्ते? फिर यह वाक्य विन्यास भी ठीक नहीं है. मिसरे आसान वाक्य रचना में हों तो अधिक मारक होते हैं.
प्रयास जारी रखिये .. आप की अगली रचना पढने को उत्सुक हूँ
सादर
on Tuesday
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
गजलों को लेकर एक बात जो कम ही चर्चा में आती है, वह है उसके मिसरों का गद्यानुरूप होना. अर्थात, मिसरे कमोबेश किसी गद्य वाक्य की तरह हों, लेकिन बहर में हों. इसी आशय को आदरणीय नीलेश भाई और आदरणीय रवि भाई ने अपने-अपने ढंग से कहा है. आदरणीय मयंक जी, आप इस तथ्य को समझ की गाँठ की तरह बाँध लें.
बाकी आपका प्रयास वस्तुतः श्लाघनीय है.
बधाइयाँ
yesterday
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय मयंक भाई ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा हुआ है , गुणी जन आवश्यक सलाह दे चुके है , ख़याल करिएगा
yesterday