काश कहीं से मिल जाती इक जादू की हाथ घड़ी
मैं दस साल घटा लेता तू होती दस साल बड़ी
माथे से होंठों तक का सफर न मैं तय कर पाया
रस्ता ऊबड़-खाबड़ था ऊपर से थी नाक बड़ी
प्यार मुहब्बत की बातें सारी भूल चुका था मैं
किस मनहूस घड़ी में फिर तुझसे मेरी आँख लड़ी
लाइलाज है रोग मगर कम हो जायेगी पीड़ा
गर तू माथे पर रख दे लब की बूटी और जड़ी
इस दुनिया की नज़रों में है बदनाम बड़ा ‘सज्जन’
तू भी हो जायेगी सुन मत हो मेरे साथ खड़ी
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बसंत कुमार शर्मा
आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी सादर नमस्कार
वाह वाह लाजबाब गजल हुई
माथे से होंठों तक का सफर न मैं तय कर पाया
रस्ता ऊबड़-खाबड़ था ऊपर से थी नाक बड़ी- क्या कहने
बधाई स्वीकारें
Jul 17, 2020