122 - 122 - 122 - 122 जो उठते धुएँ को ही पहचान लेतेतो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते*न तिनके जलाते तमाशे की ख़ातिरन ख़ुद आतिशों के ये बोहरान लेते*ये घर टूटकर क्यूँ बिखरते हमारेजो शोरिश-पसंदों को…See More
"शुक्रिया। लेखनी जब चल जाती है तो 'भय' भूल जाती है, भावों को शाब्दिक करती जाती है। बाद में 'भय' शैतान या हैवान रूप में प्रकट हो जाये, इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता…"
"आपके संकल्प और आपकी सहमति का स्वागत है, आदरणीय रवि भाईजी.
ओबीओ अपने पुराने वरिष्ठ सदस्यों की अनायास/ सायास अनुपस्थितियों के कारण, विगत कई वर्षों से, बड़े कठिन दौर से गुजर रहा है.
कोई घर अपने…"
"आपका साहित्यिक नजरिया, आदरणीय नीलेश जी, अत्यंत उदार है.
आपके संकल्प का मैं अनुमोदन करता हूँ. मैं भी आपका अनुकरण करूँगा.
मेरी व्यस्तता कई-कई वर्षों से मेरे सिर चढ़ गयी है. ऐसा होना लाजिमी…"
"आदरणीय सुशील सरना जी, इन दोहों के लिए हार्दिक बधाई.
आपने इश्क के दरिया में जोरदार छलांग लगायी है, और खूब डूब कर पार किया है...
आपके लिए आपकी ही बात को बधाइयों के तौर पर…"