पुस्तक समीक्षा

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समीक्षा : 'न बहुरे लोक के दिन' (नवगीत संग्रह)

‘न बहुरे लोक के दिन’

रचनाकार – अनामिका सिंह

प्रकाशक – बोधि प्रकाशन, जयपुर (राज.)

ISBN : 978-93-5536-091-5

मूल्य -  रूपये 250/-

 

            वर्ष २०२२ का प्रथम मास और चर्चित नवगीतकार अनामिका सिंह की प्रथम पुस्तक ‘न बहुरे लोक के दिन’ का प्राप्त होना एक सुखद अनभूति कराता है. आदरणीया का छंद रचते-रचते कब गीतों की ओर झुकाव हुआ पता ही नहीं चला और आज उनका यह प्रथम नवगीत ग्रन्थ हाथ में है.

 

            पुस्तक की भूमिका लिखते हुए श्री वीरेंद्र आस्तिक लिखते हैं ‘संग्रह के नवगीत एक नए प्रकार के भाषा मुहावरे में गढ़े हुए हैं’ और  श्री मंज़र-उल वासै कहते हैं ‘ उन्होंने गीतों को पसीने से सींचा है, ममत्व का दुग्ध पिलाया है, लोकहित की भावना की खाद दी है’ वहीँ श्री भगवान् प्रसाद सिन्हा संग्रह में आये गीतों को लोकतंत्र पर आये संकट के सचेतक मानते हैं. तीनों वरिष्ठ और श्रेष्ठ नवगीतकारों को पढ़ने के पश्चात ग्रन्थ के गीतों को पढ़ने के लिए मन लालायित हो उठा.

 

            ग्रन्थ का प्रथम गीत ‘अम्मा की सुध आई’ यह प्रतीति कराने के लिए पर्याप्त है कि बेटियाँ विवाहोपरांत भी माँ और उसके कष्टों को कभी भूल नहीं पातीं ‘अपढ़ बाँचती मौन पढ़ी थी, जाने कौन पढ़ाई’...यह दो पंक्तियाँ किसी भी पाठक को साक्षात माँ के दर्शन करा देती हैं.

 

            गीत जब छंदबद्ध हों उनका प्रवाह निर्बाध हो और प्रयुक्त प्रतीक और बिम्ब पाठक के हृदय को स्पर्श करने वाले हों तो वह सहज ही पाठक के मन में अपनी जगह बना लेते हैं –

राजकोष तो भरा मगर,क्यों

रीता है कश्कोल ?

यहाँ कश्कोल क्या है ? वही हर नागरिक की आस का पात्र, जो उसकी शासक से अपेक्षा है.

 

साठ के दशक से आरम्भ नवगीतों को सुघढ़ भाषा, शिल्प और कथ्य के साथ विस्तार देता यह ग्रन्थ कुछ और अप्रयुक्त शब्दों के साथ नये प्रतिमान गढ़ रहा है.  

 अनाचार

की जड़ काटेंगी

उत्तरदायी थी संज्ञाएँ

मचवे पकड़े सिंहासन के

वे यश की

कह रहीं कथाएँ.

 या

मरघट सम

मातम जन-गण-मन

राजा बाँधे शगुन कलीरे.

 

            नवगीत सृजन एक संवेदनशील मन की तपस्या का परिणाम होता है. जिसे परम्परा और आधुनिक काल का पूर्ण बोध हो. सामयिक विसंगतियों पर क़लम चलाना आसान नहीं है. किन्तु कवयित्री की क़लम बहुत आशान्वित कर रही है.

 

ठकुरसुहाती करें चौधरी

दाल बुद्धि पर ताला.

लगा विवेकी चिन्तन में है

जातिवाद का जाला.

 

घायल बचपन हुआ, बिलोते

कट्टर धर्म मथानी में.

 

            अपने नवगीतों में कवयित्री ने जहाँ समाज के पिछड़े और शोषित वर्ग की पीड़ा को मुखर किया है वहीँ समाज की अंदरूनी विसंगतियों और रूढ़ियों पर भी जाग्रति लाने का प्रयास किया है.सत्ता या समाज दोनों के विरोध में यह क़लम ग्रन्थ की प्रत्येक रचना में बिना किसी समझौते के चली है, चाहे इनका गीत ‘छोडो जी सरकार’, आग लगा दी पानी में या ‘यह न होगा’ हो-

ओढ़कर  बैठे रहेंगे मौन,

यह न होगा.

हम करेंगे

जुल्म का प्रतिरोध.

            इस ग्रन्थ के सत्तर गीतों में किस-किस गीत पर रचनाकार को बधाई दूँ, प्रत्येक गीत का अपना तेवर है और सभी गीत श्रेष्ठ हैं.यह  160 पृष्ठों का ग्रन्थ ‘न बहुरे लोक के दिन’ साहित्य जगत में अपना विशेष मुक़ाम बनाएगा, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ मैं कवयित्री को इसके प्रकाशित होने पर बहुत-बहुत बधाई देता हूँ.

 

~ अशोक कुमार रक्ताले

40/54, राजस्व कॉलोनी,

उज्जैन -456010

चलभाष – 9827256343  

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    सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    //नवगीत सृजन एक संवेदनशील मन की तपस्या का परिणाम होता है. जिसे परम्परा और आधुनिक काल का पूर्ण बोध हो. //

    उपर्युक्त पंक्ति की पारिभाषिक क्षमता नवगीत के विधान को पूर्णरूप से सार्थक साबित करती है. 

    आदरणीय अशोकजी, मुझे इस पाठकीय समीक्षा से नवगीत-संग्रह के स्तर का भान तो हो ही रहा है, आपकी सजग दृष्टि तथा आपका मनस आपके अवगाहन क्षमता को भी रेखांकित कर रहे हैं. अनामिका जी की काव्य प्रतिभा का संज्ञान है. उनकी इस कृति का सर्वथा स्वागत है.  

    इस समीक्षा के लिए हार्दिक धन्यवाद तथा अशेष शुभकामनाएँ 

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