धार्मिक साहित्य

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#सरसी_छन्द, उपहार

स्वार्थहीन अनुराग सदा ही,
देते हो भगवान।
निज सुख-सुविधा के सब साधन,
दिया सदा ही मान।

अपनी सूझ-बूझ से समझी,
प्रतिपल मेरी चाह,
इस कठोर जीवन की तुमने,
सरल बनायी राह।

कभी कहाँ संतुष्ट हुई मैं,
सदा देखती दोष।
सहज प्राप्त सब होता रहता,
फिर भी उठता रोष।

किया नहीं आभार व्यक्त भी,
मैं निर्लज्ज कठोर,
मर्यादा की सीमा लाँघी,
पाप किये हैं घोर।

अनदेखा दोषों को करके,
देते हो उपहार।
काँटें पाकर भी ले आते,
फूलों का नित हार।

एक पुकार उठे जो मन से,
दौड़ पड़े प्रभु आप।
पल में ही फिर सब हर लेते,
जीवन के संताप।

भाव और विश्वास भरा मन,
एक और उपहार।
माँगे 'शुचि' दर तेरे आकर,
आप करो उद्धार।

मौलिक एवम अप्रकाशित