ग़ज़ल नूर की -बस किसी अवतार के आने का रस्ता देखना

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बस किसी अवतार के आने का रस्ता देखना
बस्तियाँ जलती रहेंगी, तुम तमाशा देखना.
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छाँव तो फिर छाँव है लेकिन किसी बरगद तले
धूप खो कर जल न जाये कोई पौधा, देखना.
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देखने से गो नहीं मक़्सूद जिस बेचैनी का
हर कोई कहता है फिर भी उस को “रस्ता देखना”  
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क़ामयाबी दे अगर तो ये भी मुझ को दे शुऊ’र 
किस तरह दिल-आइने में अक्स ख़ुद का देखना.
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चाँद में महबूब की सूरत नज़र आती नहीं   
जब से आधे चाँद में आया है कासा देखना.
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तीरगी फिर कर रही है घेरने की कोशिशें,
“नूर” है तेरा इसे तू ही ख़ुदाया देखना.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

  • Manan Kumar singh

    अच्छी गजल है आ द र णी य,ब धा ई!पर तिरगी ...कर रही है,' देख लें,सादर।
  • Nilesh Shevgaonkar

    शुक्रिया आ. मनन जी ....
    आप   की शंका को समझ नहीं पाया मैं..स्पष्ट करने की कृपा  करें 
    सादर 

  • Manan Kumar singh

    र के बाद र की मूल रूप में हीं पुनरावृति हो रही है न, आदरणीय। शायद इसे दोष में शुमार किया जाता है।