न पावन हुए जब मनों के लिए -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२/१२२/१२२/१२

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सदा बँट के जग में जमातों में हम
रहे खून  लिखते  किताबों में हम।१।
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हमें मौत  रचने  से  फुरसत नहीं
न शामिल हुए यूँ जनाजों में हम।२।
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हमारे बिना यह सियासत कहाँ
जवाबों में हम हैं सवालों में हम।३।
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किया कर्म जग  में  न ऐसा कोई
गिने जायें जिससे सबाबों में हम।४।
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न मंजिल न मकसद न उन्वान ही
कि समझे गये हैं मिराजों में हम।५।
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रहा भाग्य अपना तो सीमित यही
रहे भूख  में  या  निवालों  में हम।६।
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न पावन  हुए  जब  मनों के लिए
मिलेंगे कहाँ फिर शिवालों में हम।७।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"