आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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कर तरक्की जो सभा में बोलता है
बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।।
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देवता जिस को बनाया आदमी ने
आदमी की सोच ओछी सोचता है।।
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हैं लगाते पार झोंके नाव जिसकी
है हवा विपरीत जग में बोलता है।।
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जान  पायेगा  कहाँ  से  देवता को
आदमी क्या आदमी को जानता है।।
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एक हम हैं कह रहे हैं प्यार तुमसे
कौन जग में राज अपने खोलता है।।
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अब जरूरत ही कहाँ है रहज़नों की
राह में खुद को "मुसाफिर" लूटता है।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

  • Ravi Shukla

    आदरणीय लक्ष्मण धामी जी गजल की प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई गजल के मकता के संबंध में एक जिज्ञासा है । मुसाफिर राह में खुद को लूटता है इससे आपका क्या तात्पर्य है? चौथे शेर की बात करें तो शेर का वाक्य विन्यास कहन के हिसाब से यूं लगता है कि आदमी ने आदमी को ही नहीं जाना तो देवता को कैसे जान पाएगा या क्या आदमी आदमी को जानता है जो वह देवता को जानने की बात कर रहा है।  कथ्य तो समझ आ रहा है लेकिन मुझे शिल्प की दृष्टि से इसके संप्रेषण में थोड़ी और बेहतरी की गुंजाइश लगती है सादर