दोहा दशम्. . . निर्वाण

दोहा दशम्. . . . निर्वाण

कौन निभाता है भला, जीवन भर का साथ ।
अन्तिम घट पर छूटता, हर अपने का हाथ ।।

तन में चलती साँस का, मत करना विश्वास ।
साँसें तन की जिंदगी, तन साँसों का दास  ।।

साँसों की यह डुगडुगी, बजती है दिन-रात ।
क्या जाने कब नाद यह, दे जीवन को मात ।।

मौन देह से सूक्ष्म का, जब होता निर्वाण ।
अनुत्तरित है आज तक , कहाँ गए वह प्राण ।।

तोड़ देह प्राचीर को, सूक्ष्म चला उस पार ।
मौन देह के साथ तो, बस काँधे थे चार ।।

इस नश्वर संसार का, आभासी हर ठौर ।
यह दुनिया कुछ और है, वो दुनिया कुछ और ।।

आँख मिचौली देह से, जब करते हैं प्राण ।
समझो तन को दे रहा, दस्तक मौन प्रयाण  ।।

जब तक तन में साँस है, सब देते हैं साथ ।
बिना साँस की देह का, कौन जगत् में नाथ ।।

घट से बाहर झूठ सब, घट सच की प्राचीर  ।
अंत सभी का एक सा, राजा रंक फकीर ।।

संभव शायद देखना , मुश्किल है उस पार ।
आलौकिक आलोक के, बीच खड़ा संसार ।।

आखिर क्या है  जिंदगी, तेरा असली रंग ।
जब तक जीता आदमी, खत्म न होती जंग ।।

सुशील सरना / 5-11-25

मौलिक एवं अप्रकाशित