by Sushil Sarna
on Wednesday
दोहा दशम्. . . . निर्वाण
कौन निभाता है भला, जीवन भर का साथ । अन्तिम घट पर छूटता, हर अपने का हाथ ।।
तन में चलती साँस का, मत करना विश्वास । साँसें तन की जिंदगी, तन साँसों का दास ।।
साँसों की यह डुगडुगी, बजती है दिन-रात । क्या जाने कब नाद यह, दे जीवन को मात ।।
मौन देह से सूक्ष्म का, जब होता निर्वाण । अनुत्तरित है आज तक , कहाँ गए वह प्राण ।।
तोड़ देह प्राचीर को, सूक्ष्म चला उस पार । मौन देह के साथ तो, बस काँधे थे चार ।।
इस नश्वर संसार का, आभासी हर ठौर । यह दुनिया कुछ और है, वो दुनिया कुछ और ।।
आँख मिचौली देह से, जब करते हैं प्राण । समझो तन को दे रहा, दस्तक मौन प्रयाण ।।
जब तक तन में साँस है, सब देते हैं साथ । बिना साँस की देह का, कौन जगत् में नाथ ।।
घट से बाहर झूठ सब, घट सच की प्राचीर । अंत सभी का एक सा, राजा रंक फकीर ।।
संभव शायद देखना , मुश्किल है उस पार । आलौकिक आलोक के, बीच खड़ा संसार ।।
आखिर क्या है जिंदगी, तेरा असली रंग । जब तक जीता आदमी, खत्म न होती जंग ।।
सुशील सरना / 5-11-25
मौलिक एवं अप्रकाशित
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दोहा दशम्. . . निर्वाण
by Sushil Sarna
on Wednesday
दोहा दशम्. . . . निर्वाण
कौन निभाता है भला, जीवन भर का साथ ।
अन्तिम घट पर छूटता, हर अपने का हाथ ।।
तन में चलती साँस का, मत करना विश्वास ।
साँसें तन की जिंदगी, तन साँसों का दास ।।
साँसों की यह डुगडुगी, बजती है दिन-रात ।
क्या जाने कब नाद यह, दे जीवन को मात ।।
मौन देह से सूक्ष्म का, जब होता निर्वाण ।
अनुत्तरित है आज तक , कहाँ गए वह प्राण ।।
तोड़ देह प्राचीर को, सूक्ष्म चला उस पार ।
मौन देह के साथ तो, बस काँधे थे चार ।।
इस नश्वर संसार का, आभासी हर ठौर ।
यह दुनिया कुछ और है, वो दुनिया कुछ और ।।
आँख मिचौली देह से, जब करते हैं प्राण ।
समझो तन को दे रहा, दस्तक मौन प्रयाण ।।
जब तक तन में साँस है, सब देते हैं साथ ।
बिना साँस की देह का, कौन जगत् में नाथ ।।
घट से बाहर झूठ सब, घट सच की प्राचीर ।
अंत सभी का एक सा, राजा रंक फकीर ।।
संभव शायद देखना , मुश्किल है उस पार ।
आलौकिक आलोक के, बीच खड़ा संसार ।।
आखिर क्या है जिंदगी, तेरा असली रंग ।
जब तक जीता आदमी, खत्म न होती जंग ।।
सुशील सरना / 5-11-25
मौलिक एवं अप्रकाशित