देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)

बह्र : 2122 2122 2122 212 

देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले

झूठ, नफ़रत, छल-कपट से जैसे गद्दारी मिले

संत सारे बक रहे वाही-तबाही लंठ बन 

धर्म सम्मेलन में अब दंगों की तैयारी मिले

रोशनी बाँटी जिन्होंने जिस्म उनका जल गया

और अँधेरा बेचने वालों को सरदारी मिले

कौन सी चौखट पे जाएँ सच बताने जब हमें

निर्वसन राजा मिला नंगे ही दरबारी मिले

क़त्ल होने को यहाँ बस सत्य कहना है बहुत

हर गली-कूचे में दुबकी आज अय्यारी मिले

ख़ूब मँहगाई बढ़ी तो आदमी सस्ता हुआ

चंद सिक्कों की खनक पर अब वफ़ादारी मिले

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

  • लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    आ. भाई धर्मेंद्र जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।


  • सदस्य कार्यकारिणी

    मिथिलेश वामनकर

    आदरणीय धर्मेन्द्र जी समाज की वर्तमान स्थिति पर गहरा कटाक्ष करती बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने है, आज समाज में दिख रहे नैतिकता के ह्रास, असत्य और धर्म के नाम पर पाखंड, छल और स्वार्थ को इन अशआर में व्यंग्य के माध्यम से अभिव्यक्त किया है आपने. सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक पतन को उजागर करती इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर