दोहा पंचक. . . . इसरार
लब से लब का फासला, दिल को नहीं कबूल ।
उल्फत में चलते नहीं, अश्कों भरे उसूल ।।
रुखसारों पर रह गए, कुछ ऐसे अल्फाज ।
तारीकी के खुल गए, वस्ल भरे सब राज ।।
जुल्फों की चिलमन हटी ,हया हुई मजबूर ।
तारीकी में लम्स का, बढ़ता रहा सुरूर ।।
ख्वाब हकीकत से लगे, बहका दिल नादान ।
बढ़ी करीबी इस कदर, मचल उठे अरमान ।।
खामोशी दुश्मन बनी , टूटे सब इंकार ।
दिल ने कुबूल कर लिए, दिल के सब इसरार ।।
सुशील सरना / 15-9-25
मौलिक एवं अप्रकाशित
सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर
आदरणीय सुशील सरना जी, आपने क्या ही खूब दोहे लिखे हैं। आपने दोहों में प्रेम, भावनाओं और मानवीय संवेदनाओं का सजीव चित्रण किया है, यह प्रस्तुति हृदय की गहराइयों को छूती है। इन दोहों में प्रेम की नाजुकता, उसकी तीव्रता और भावनात्मक उथल-पुथल को इतने सहज ढंग से व्यक्त किया गया है कि हम स्वतः ही इस भाव-जगत में खो जाते है। प्रत्येक दोहा अपने आप में एक पूरी कहानी कह रहा है, जो प्रेम की विभिन्न छवियों को उकेर रहा है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें।
Oct 6
Sushil Sarna
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय जी ।
Oct 7