शोक-संदेश (कविता)

अथाह दुःख और गहरी वेदना के साथ
आप सबको यह सूचित करना पड़ रहा है कि
आज हमारे बीच वह नहीं रहे
जिन्हें युगों से
ईश्वर, ख़ुदा, भगवान, परमात्मा इत्यादि कहकर पुकारा जाता था।

उनकी कोई देह न थी,
पर उनकी अनुपस्थिति की धूल
हर आँगन, हर मंदिर, हर मस्जिद, हर गिरजाघर में
बेआवाज बिखर चुकी है

उनकी मृत्यु पर
न मंदिरों में शंख बजे
न मस्जिदों में अज़ान उठी
न गिरजाघर की घंटियाँ बजीं
न आसमान गरजा
केवल एक अथाह, अंतहीन सन्नाटा
ब्रह्मांड की आत्मा में उतर गया

हम समस्त मानवजाति से विनम्र निवेदन करते हैं
कि वो पत्थर के मंदिरों, मस्जिदों और गिरिजाघरों में नहीं
बल्कि अपने हृदय के भीतर, भावों से बनी उस कोठरी में आयें
जहाँ कभी विश्वास का दीपक टिमटिमाता था

अपनी अधूरी प्रार्थनाओं का दीपक जलाकर लाएँ
और आँसुओं से भीगे धर्मग्रंथों को चादर की तरह बिछाकर बैठें
और हाँ अपना विश्वास जरूर साथ लाएँ
क्योंकि वह बेचारा आज अनाथ हो गया

ईश्वर की अर्थी को कंधा देने के लिए
राजा-रंक सब एक पंक्ति में खड़े होंगे
किसी के हाथ में रामचरितमानस होगा
किसी के हाथ में कुरान
किसी के हाथ में बाइबल या गुरु ग्रंथ साहिब
धीरे धीरे सब किताबें उस शवयात्रा की
फूल-मालाएँ बन जाएँगी

अब शायद ईश्वर से रिक्त आकाश हमें सिखा दे
कि मनुष्य ही मनुष्य का सहारा है
सबसे पवित्र है एक-दूसरे का हाथ थाम लेना

 सबसे बड़ा तीर्थ है किसी प्रियजन का कंधा
और सबसे बड़ा मंदिर है इंसान का दिल

गहन शोक सहित,

सम्पूर्ण संसार को समर्पित

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)