अच्छा लगता है गम को तन्हाई में
मिलना आकर तू हमको तन्हाई में।१।
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दीप तले क्यों बैठ गया साथी आकर
क्या डर लगता है तम को तन्हाई में।२।
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छत पर बैठा मुँह फेरे वह खेतों से
क्या सूझा है मौसम को तन्हाई में।३।
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झील किनारे बैठा चन्दा बतियाने
देख अकेला शबनम को तन्हाई में।४।
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घाव भले भर पीर न कोई मरने दे
जा तू समझा मरहम को तन्हाई में।५।
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साया भी जब छोड़ गया हो तब यारो
क्या मिलना था बेदम को तन्हाई में।६।
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बीता वक्त उठाता सर जब यादों से
मन लिख देता है ग़म को तन्हाई में।७।
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यादों का ध्वज भले समेटे मन बैठा
लहरा देगा परचम को तन्हाई में।८।
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पथ ही देंगे राहत थोड़ी साँझ ढले
चलते-चलते बेदम को तन्हाई में।९।
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बरसों बाद मिला है भरले बाँहों में
दौड़ 'मुसाफिर' हमदम को तन्हाई में।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh
बहुत सुंदर ग़ज़ल ... सभी अशआर अच्छे हैं और रदीफ़ भी बेहद सुंदर
बधाई सृजन पर
on Saturday
Chetan Prakash
खूबसूरत ग़ज़ल हुई, बह्र भी दी जानी चाहिए थी। ' बेदम' काफ़िया , शे'र ( 6 ) और ( 9 ) में प्रयुक्त हुआ, मेरी राय में, शे'र (6 ) में, हमदम और, (9 ) में, बरहम, बेहतर होता !
16 hours ago