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कहते हो बात रोज ही आँखें तरेर कर
होगी कहाँ से दोस्ती आँखें तरेर कर।।
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उलझे थे सब सवाल ही आँखें तरेर कर
देता रहा जवाब भी आँखें तरेर कर।।
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देती कहाँ सुकून ये राहें भला मुझे
पायी है जब ये ज़िंदगी आँखें तरेर कर।।
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माँ ने दुआ में ढाल दी सारी थकान भी
देखी जो बेटी लौटती आँखें तरेर कर।।
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औक़ात का हिसाब यूँ देगा भला वो क्या
चलता जो बस दिखावटी आँखें तरेर कर।।
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समझेगा मेरे इश्क़ का कैसे हुनर भला
पढ़ता जो यार लफ्ज़ भी आँखें तरेर कर।।
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तुझसे न कोई खौफ़ "मुसाफिर" मुझे रहा
आजा जो आना और भी आँखें तरेर कर।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय लक्ष्मण भाई , अच्छी ग़ज़ल कही , बड़ी कठिन रदीफ़ चुनी आपने , हार्दिक बधाई आपको
Jun 26
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।
यह रदीफ कई महीनो से दिमाग में थी किसी घटना के कारण। पहले इसे कविता का रूप देना चाह रहा था पर सिरे नहीं चढ़ा। फिर गजल का प्रयास किया।आपके उत्साहवर्धन से मन को संतुष्टि मिली है।
Jul 1