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सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं
जहाँ मक़ाम है मेरा वहाँ नहीं हूँ मैं.
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ये और बात कि कल जैसी मुझ में बात नहीं
अगरचे आज भी सौदा गराँ नहीं हूँ मैं.
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ख़ला की गूँज में मैं डूबता उभरता हूँ
ख़मोशियों से बना हूँ ज़बां नहीं हूँ मैं.
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मु’आशरे के सिखाए हुए हैं सब आदाब
किसी का अक्स हूँ ख़ुद का बयाँ नहीं हूँ मैं.
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सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू
जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं?
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परे हूँ जिस्म से अपने मैं ‘नूर’ हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं.
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निलेश नूर
मौलिक/ अप्रकाशित
Chetan Prakash
आदाब,'नूर' साहब, सुन्दर रचना है, मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में !
"परे हूँ जिस्म से अपने मैं 'नूर' हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं"
आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है !
Jun 13
Nilesh Shevgaonkar
आ. चेतन प्रकाश जी.
मैं आपकी टिप्पणी को समझ पाने में असमर्थ हूँ.
मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में - इसे किस तरह समझा जाए..
आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है ..इस पर थोड़ा प्रकाश डालेंगे तो कृपा होगी
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सादर
Jun 13
अजय गुप्ता 'अजेय
अच्छी ग़ज़ल हुई है नीलेश नूर भाई। बहुत बधाई
Jun 14
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
Jun 14
Chetan Prakash
Jun 15
Nilesh Shevgaonkar
धन्यवाद आ. अजय गुप्ता जी
Jun 16