१२२२ १२२२ १२२२ १२२
मेरा घेरा ये बाहों का तेरा बन्धन नहीं है
इसे तू तोड़ के जाये मुझे अड़चन नहीं है
समय की धार ने बदला है साँपों को भी शायद
वो लिपटे हैं मेरी बाहों से जो चन्दन नहीं है
जिन्हों ने कामनाओं की जकड़ स्वीकार की थी
उन्हीं की भावनाओं में बची जकड़न नहीं है
न लो गंभीरता से तुम बुढ़ापे की लड़ाई को
अकेलेपन को भरता हूँ, यहाँ अनबन नहीं है
सभी राहों में कांटे, फूल पत्थर है नदी भी
ये दुनिया छोड़ जाने का कोई कारन नहीं है
अगर चलती हैं साँसें तो कभी पूछो तो खुद से
किसी की वेदना में क्यूं यहाँ क्रन्दन नहीं है
किसी की दृष्टि बाधित है, किसी की सोच लंगड़ी
दिखाई साफ़ दे ऐसा कोई दरपन नहीं है
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Nilesh Shevgaonkar
आ. गिरिराज जी
ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई ..
मैं निजि रूप में दर्पण जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द को दरपन की तरह लेने के पक्ष में नहीं हूँ लेकिन आजकल यह स्वीकार्य है .
पुन: बधाई
May 31
अजय गुप्ता 'अजेय
ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय गिरिराज जी।
नीलेश जी की बात से सहमत हूँ। उर्दू की लिपि में “न” और “ण” को अलग नहीं किया जा सकता पर देवनागरी में तो इन्हें पृथक ही रखना चाहिए।
सादर
May 31
बृजेश कुमार 'ब्रज'
आदरणीय भंडारी जी बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है सादर बधाई। दूसरे शेर के ऊला को ऐसे कहें तो "समय की धार ने बदली निज़ामत विषधरों की"
बस एक ख़्याल
Jun 4
Ravi Shukla
आदरणीय गिरिराज भाई जी नमस्कार ग़ज़ल का अच्छी प्रयास है । आप को पुनः सृजन रत देखकर खुशी हो रही है
मुझे पढ़ने में दूसरे शेर में बाहों को देखते हुए जो चंदन नहीं है की जगह नहीं हैं समझ आ रहा है अगर यह सही है तो रदीफ बदल रही है बाहें बहुवचन है जो चंदन नहीं हैं । देखियेगा । ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकार करें ।
Jun 9
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आ. नीलेश भाई ग़ज़ल पर उपस्थिति और उत्साह वर्धन के लिए आपका आभार
Jun 10
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय अजय भाई , ग़ज़ल पर उपस्थिति हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका आभार
Jun 10