लोग हुए उन्मत्ते हैं
बिना आग ही तत्ते हैं
गड्डी में सब सत्ते हैं
बड़े अनोखे पत्ते हैं
उतना तो सामान नहीं है
जितने महँगे गत्ते हैं
जितनी तनख़्वाह मिलती है
उस से ज्यादा भत्ते हैं
कानूनों के रचनाकार
उन्हें बताते धत्ते हैं
बेशर्मी पर हैं वो ही
तन पर जिनके लत्ते हैं
शहद बनेगा कितना ही
अलग-अलग अब छत्ते हैं
#मौलिक व अप्रकाशित
Nilesh Shevgaonkar
आ. अजय जी,
क़ाफ़िया उन्मत्त तो सुना था उन्मत्ते पहली बार देखा...
तत्ते का भी अर्थ मुझे नहीं पता.
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उतना तो सामान नहीं है (एक मात्रा बढ़ रही है)
उतने का सामान नहीं (वैसे न की तकरार यहाँ भी है)
जितने महँगे गत्ते हैं.
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धत्ते.. धता बताना सुना था.. यह अजीब लग रहा है.
अलग-अलग अब छत्ते हैं?? अलग अलग ही होते हैं छत्ते.. मैं समझ नहीं पाया आपकी इस ग़ज़ल को
सादर
May 26
Ravi Shukla
आदरणीय अजय जी ग़ज़ल के प्रयास केलिये आपको बधाई देता हूँ । ऐसा प्रतीत हो रहा है कवाफी के लिये ग़ज़ल कही गई है प्रयोग अच्छा है लेकिन शब्दो को उनके अर्थ के अतिरिक्त वाक्य की आवश्यकता अनुसार प्रयोग किया गया लगता है । तनख्वाह वाले मिसरे में भी लय बाधित लगी मुझे । कुछ बातें आदरणीय नीलेश जी ने भी कही है । सार्थक हैं उनके सुझाव ।
May 27
अजय गुप्ता 'अजेय
ग़ज़ल पर आने और अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए आभार भाई नीलेश जी
May 28
अजय गुप्ता 'अजेय
हार्दिक आभार आदरणीय रवि शुक्ला जी। आपकी और नीलेश जी की बातों का संज्ञान लेकर ग़ज़ल में सुधार का प्रयास जारी रहेगा।
सादर
May 28