122 - 122 - 122 - 122
जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते
तो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते
*
न तिनके जलाते तमाशे की ख़ातिर
न ख़ुद आतिशों के ये बोहरान लेते
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ये घर टूटकर क्यूँ बिखरते हमारे
जो शोरिश-पसंदों को पहचान लेते
*
फ़ना हो न जाती ये अज़्मत हमारी
जो बाँहों के साँपों को भी जान लेते
*
न होता ये मिसरा यूँ ही ख़ारिज-उल-बह्र
दुरुस्त हम अगर सारे अरकान लेते
*
"अमीर'' ऐसे सर को न धुनते कभी हम
गर आबा-ओ-अज्दाद की मान लेते
" मौलिक व अप्रकाशित"
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आदाब,
ग़ज़ल पर आपकी आमद बाइस-ए-शरफ़ है और आपकी तारीफें वो ए'ज़ाज़ है जिसे मैं हमेशा सहेज कर रखूँगा, इस ज़र्रा नवाज़ी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
आपकी शायरी की गहरी समझ का मैं क़ायल हो गया हूँ, जैसा कि निलेश जी ने भी कहा कि आप ने वहीं उँगली रखी जिसे मैं सोच रहा था, -
//फ़ना हो न जाती ये अज़्मत हमारी
तज़लज़ुल की आहट अगर जान लेते//... अज्मत और तजलजुल के बीच राब्ता नहीं बैठ रहा, ऐसा मुझे लग रहा है अज्मत का कुछ कीजिए.//
बेशक मैं पूरी तरह सहमत हूँ, लिहाज़ा शे'र में ये बदलाव किया है देखिएगा-
"फ़ना हो न जाती ये अज़्मत हमारी
जो बाँहों के साँपों को भी जान लेते" सादर।
yesterday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय निलेश शेवगाँवकर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद, इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
//सही को मैं तो सही लेना और पढना स्वीकार करता हूँ लेकिन उर्दू क़ायदा सहीह बताता है.//
जी ज़रूर। ...वैसे मैं "सही" के भी ख़िलाफ़ नहीं हूँ। इस शे'र में बदलाव किया है, देखिएगा -
न होता ये मिसरा यूँ ही ख़ारिज-उल-बह्र
दुरुस्त आप अगर सारे अरकान लेते " सादर।
yesterday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी
आदरणीय शिज्जु "शकूर" साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया...सादर।
yesterday