पहलगाम ही क्यों कहें - दोहे

रक्त रहे जो नित बहा, मजहब-मजहब खेल।
उनका बस उद्देश्य यह, टूटे सबका मेल।।
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जीवन देना कर सके, नहीं जगत में कर्म।
रक्त पिपाशू लोग जो, समझेंगे क्या धर्म।।
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छीन किसी के लाल को, जो सौंपे नित पीर।
कहाँ धर्म के मर्म को, जग में हुआ अधीर।।
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बनकर बस हैवान जो, मिटा रहे सिन्दूर।
वही नीच पर चाहते, जन्नत में सौ हूर।।
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मंसूबे उनके जगत, अगर गया है ताड़।
देते है फिर क्यों उन्हें, कहो धर्म की आड़।।
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पहलगाम ही क्यों कहें, पग-पग मचा फसाद।
किससे पाना चाहते, समझो तो ये दाद।।
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मौलिक अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'