एक धरती जो सदा से जल रही है
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२१२२ २१२२ २१२२
'मन के कोने में इक इच्छा पल रही है'
पर वो चुप है, आज तक निश्चल रही है
एक चुप्पी सालती है रोज़ मुझको
एक चुप्पी है जो अब तक खल रही है
बूँद जो बारिश में टपकी सर पे तेरे
सच यही है बूंद कल बादल रही है
इक समस्या कोशिशों से हल बनी तब
इक समस्या फिर से पीछे चल रही है
चाँद पूरा है मगर लगता है धुँधला
क्या कोई बदली उसे फिर छल रही है
'तुम हँसे, तो फिर हँसी लौटी मेरी भी
जो हँसी अब तक कहीं ओझल रही है'
कर्म-फल-पट और इच्छा-पट से मिल के
है बनी चक्की जो सबको दल रही है
एक है सूरज जो तपता है सदा ही
एक धरती जो सदा से जल रही है
वो बना है नीव का पत्थर खुशी से
इसलिए उसकी खुशी बस टल रही है
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Nilesh Shevgaonkar
आ. गिरिराज जी
समर सर ग़ज़ल पर कह ही चुके हैं. बादल वाले शेर को यूँ कर के देखें..
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बूँद जो बारिश में टपकी सर पे तेरे
एक पल पहले तलक बादल रही है.
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इक समस्या कोशिशों से हल हुई पर
इक समस्या अब भी पीछे चल रही है
.
बहुत बहुत बधाई
सादर
on Tuesday
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय रवि भाई , ग़ज़ल पर उपस्थिति और उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार
yesterday
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय नीलेश भाई , ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सलाह के लिए आपका आभार
आपकी दोनों सलाह अच्छी हैं , स्वीकार है , आवश्यक सुधार कर लूंगा , आभार आपका
yesterday