प्रदत्त विषय से ऐसा आभासित होता है कि हिदी साहित्य जगत में शायद कुछ ऐसे लोग है जिन्होंने यह मान लिया है कि छंद कालातीत एव निष्प्रयोज्य हो चुका है और आज का समय केवल गद्याधारित एवं वैचारिक मुक्त छंद , अतुकांत कविता अथवा हिंदी गजल का है , जो शायद शाश्वत रहेगा I हिंदी कविता का इतिहास एक हजार वर्ष से कहीं अधिक पुराना है I इस कालावधि में प्रवृत्ति के स्तर पर कविता में अनेक बदलाव हुए हैं , लेकिन काव्य विधा में पूर्व आधुनिक काल तक कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया I अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने जब अपने काव्य ‘प्रिय प्रवास’ में संस्कृत के वृत्तों की तर्ज पर अतुकान्त छंद रचे तो उस काल में कुछ हलचल हुयी थी I ‘हरिऔध’ जी ने संस्कृत के अनेक छंद जैसे द्रुतबविलम्बित, मालिनी, वंशस्थ, मंदाक्रांता आदि को हिंदी कविता में स्थान देकर एक युगांतर उपस्थित कर दिया था I चूंकि ‘हरिऔध’ जी की प्रेरणा के उत्स आर्षग्रंथों थे, अतः किसी ने उनका विरोध नहीं किया I अपितु उसे एक चमत्कार की तरह लिया क्योंकि इससे पूर्व संस्कृत वृत्त हिंदी कविता में अपौरुषेय माने जाते थे I पर जब ‘हरिऔध’ जी ने उसकी जमीन तैयार कर दी तब भी श्रम साध्य होने के कारण इस क्षेत्र मे लोगों ने अपने हाथ कम ही आजमाये I
आज जो लोगों की धारणा है कि अतुकांत का समारंभ निराला से हुआ, यह सही नहीं है I छंद-बद्ध अतुकांत की नीव हरिऔध जी ‘प्रिय प्रवास में काफी पहले डाल चुके थे I एक उदाहरण देखिये-
ध्वनि-मयी कर के गिरि-कंदरा कलित कानन केलि निकुंज को
बज उठी मुरली इस काल ही तरणिजा तट राजित कुंज में
आधुनिक काल में महादेवी वर्मा और निराला तक हिंदी कविता छंद-बद्ध रही है I निराला कृत ‘राम की शक्ति पूजा’ में कविता अतुकांत होकर भी 24 मात्रिक अवतार छंद के भेद 8,8,8 से निर्मित है I चूंकि ऐसा विन्यास पारिभाषिक छंदों में नहीं है , अतः इसे निराला रचित ‘शक्ति पूजा’ छंद का अभिधान दिया गया है I यथा-
है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय
रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,
फिर निराला जी ‘वह आता ---‘ जैसी टेढ़ी-मेढी रचनाये रची तो इसमें भी लय और तुक का ख्याल रखा I यहीं से रबर और केचुआ छंद का समारंभ भी हुआ I अनुवर्ती कवियों ने इसे अपना आदर्श मानक मान लिया I नये कवियों ने पहले तुक से तिलांजलि ले ली और फिर लय भी अनिवार्य नहीं रहा I अतुकांत कविता मुक्त छंद अथवा स्वछन्द छंद तक तो गनीमत थी पर रबर और केचुए छंद का कोई मानक नहीं रहा I आज भी ऐसी अतुकांत कविताओं का कोई परिभाषित शिल्प नहीं है I इसके बावजूद भी तमाम बुद्धिजीवकवियों ने प्रतीक और बिंबों का सटीक उपयोग कर इस कविता को अर्थ दिए और उनकी सराहना भी हुयी I हमारे ओ बी ओ चैप्टर में भी ऐसी समर्थ कवयित्री है , जिनकी लोकप्रियता शिखर पर है I
प्रतीक और बिम्ब के लिहाज से मुक्तिबोध की रचना ‘अँधेरे में ‘ को कौन भूल सकता है I हिंदी में ऐसे कवियों की एक लंबी सूची है , पर उन सबका जिक्र करना यहाँ समीचीन नहीं होगा I दरअसल इन टेढ़ी मेढ़ी अतुकांत कविताये जिन्हें समकालीन कविता भी कहा जाता है इनका क्षेत्र बहुत कुछ बौद्ध धर्म के ‘महायान’ संप्रदाय जैसा है , जहाँ किसी का भी प्रवेश निषेध नहीं है और सबको अपना जौहर दिखने की खुली छूट है Iयहाँ ‘हर दरवाजे पर कुंडी है और हर कुंडी में ताला है‘ जैसी अभिव्यक्ति भी एक कविता है I मैथिलीशरण गुप्त जी ने ‘साकेत’ महाकाव्य की पूर्वपीठिका में समर्पण और निवेदन का समारंभ करते हुए लिखा था- ‘राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है I कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है ‘I राम का चरित्र तो कहीं पीछे छूट गया है पर मेरा मानना है कि कहीं न कहीं रबर और केचुआ छ्न्दाधारित कविता ने ‘कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है का मार्ग एक सीमा तक अवश्य प्रशस्त किया है I इस’ ‘महायान’ से उन कवियों को बड़ा धक्का लगा जो ‘हीनयान’ पर सवार थे अर्थात छंद-बद्ध कविता करने वाले लोग थे I इस घर में बड़ा ही कठोर अनुशासन था I मात्रिक छंद तो फिर आसान थे पर वर्णिक में मात्रा और वर्ण दोनों को साधना पड़ता था I इस दुस्साध्य काव्य योजना से जूझने में असमर्थ लोगों को समकालीन कविता ने संजीवनी प्रदान की I हीनयान खाली होने लगा और बहुत से लोग हीनयान से पलायन कर महायान में चले गए I इससे छंदों का सामयिक नुकसान तो जरूर हुआ किन्तु उसका अंत या विनाश नहीं हुआ I छंद-बद्ध कविता की धारा अपनी अलग राह बनाती हुयी अन्तःसलिला बनकर अपने आवेग से बहती रही I यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक है कि हिदी भाषा वीरों से खाली नहीं है I ऐसे ऐसे दुर्धर्ष योद्धा यहाँ उपलब्ध हैं, जो छंद औरर समकालीन कविता दोनों परअपना समान अधिकार रखते है I
अब मैं फिर परिचर्चा के मुख्य बिंदुपर आता हूँ I हम जब यह कहते है कि ‘छंद-बद्ध कविता - पुनर्स्थापना की आहट ‘ तो शायद हम मान लेते है कि पूर्व में छंद रचना विस्थापित हुयी होगी I परन्तु यह सत्य नहीं है I परम्परावादी कवि और खासकर वे जो छंदों को ही काव्य रचना की कसौटी मानते हैं , उनकी कलम निर्बाध गति से चलती रही I डॉ . लक्ष्मी शंकर ‘निशंक , बलबीर सिंह ‘रंग, भारतभूषण, डॉ. गणेशदत्त सारस्वत आदि ने छंद का दामन नहीं छोड़ा I आज भी डॉ. अशोककुमार पाण्डेय ‘अशोक’ , ओम नीरव जैसे कवि अपनी छंद-बद्ध रचना से ही लोकप्रियता के शिखर पर है I इसलिए यह कहना तो बेमानी होगी कि छंद-बद्ध कविता फिर से लौट रही है I कविता जगत से छंदों का पलायन कभी हुआ ही नहीं I छंदों के लिए सबसे सुखद स्थिति यह है कि हिंदी में गजलों का युग आ गया है I गजल की रचना भी मात्रिक विन्यास पर आधारित है I अतः अब लोग मात्राओं को समझने लगे है और छंद रचना उनके लिए दूर की कौड़ी नहीं है Iसमकालीन कविता के उद्भव और विकास की उद्दाम गति का कुछ प्रभाब छंदों पर अवश्य पड़ा है I इस सत्य को तो नकारा नहीं जा सकता I पर अब समकालीन कविता भी सशक्त रचनाकारों की कमी से जूझ रही है I अब त्रिलोचन , शमशेर बहादुर, बाबा नागार्जुन औए मुक्तिबोध जैसे कवि नहीं हैं I केदारनाथ सिंह जी का अभी हाल में ही निधन हुआ है I इसलिए एक विधा के रूप में समकालीन कविता जीवित अवश्य रहेगी पर छंदों की समाधि पर इसका दीप जलेगा ऐसा सोचना हास्यास्पद है और सच तो यह भी है कि कोई काव्य विधा कब तक समकालीन रहेगी I अभी समय है कि इस काव्य विधा का कोई समुचित नामकरण साहित्य के इतिहासकार कर लें I यह उनका दायित्व हैं I जब इस काव्य विधा की समकालीनता हाशिये पर जायेगी तब छंदों की ओर नये कवियों का रुझान बढ़ेगा, इस बात में कोई संदेह नहीं है I एक बार फिर से मुक्तक और खंड काव्यों का दौर वापस आयेगा I इस परिप्रेक्ष्य में मुझे डॉ. धनंजय सिंह की कविता याद आती है I इस कविता के साथ ही मैं अपने वक्तव्य को विराम देता हूँ -
घर की देहरी पर छूट गए / संवाद याद यों आएँगे / यात्राएँ छोड़ बीच में ही / लौटना पड़ेगा फिर-फिर घर I
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
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