For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मध्यकालीन हिदी साहित्य में होली का कोलाज - डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

हिन्दी साहित्य में काल विभाजन के अनुसार आदिकाल और आधुनिक काल के बीच का समय मध्ययुग (1318ई०-1843ई०) कहलाता है I इस प्रकार भक्ति एवं रीतिकाल की सम्पूर्ण अवधि हिन्दी साहित्येतिहास का मध्यकाल है I मध्यकाल में भक्ति के निर्गुण स्वरुप की दो धाराएं थीं – पहला ज्ञान-मार्ग जिसके प्रतिनिधि कवि कबीर थे और दूसरा प्रेम-मार्ग जो मलिक मुहम्मद जायसी के नाम से अधिकाधिक लोकप्रिय हुआ I इसी प्रकार भक्ति के सगुण स्वरुप की भी दो शाखाएं थी- पहली राम-भक्ति शाखा  ,जिसके उन्नायक कवि गोस्वामी तुलसीदास थे I दूसरी कृष्ण-भक्ति शाखा, जो सूरदास की कविताई से कालजयी हुयी I भक्तिकाल में मीराबाई और रसखान का भी महत्वपूर्ण अवदान था I

रीति काल आचार्यों का समय था I उस समय लक्षण/लक्ष्य ग्रन्थ प्रमुखता से रचे गए I विशुद्ध आचार्यों को रीतिबद्ध कवि कहा गया और इसके मुख्य कवि केशव थे , मगर साहित्येतिहासकारों ने उन्हें भक्तिकाल में घसीट लिया I इसके बाद भी उनके आचार्य होने में किसी को भी संदेह नहीं है I इस श्रेणी के अन्य महत्वपूर्ण कवि मतिराम, देव और पद्माकर हैं I दूसरी श्रेणी रीतिसिद्ध कवियों की थी जो केवल आंशिक रूप से लक्षण-प्रवृत्त थे, जैसे बिहारी I तीसरी श्रेणी में वे कवि आते है जिन्हें लक्षण/लक्ष्य ग्रन्थ से कुछ लेना देना नहीं था I ये सर्वथा मुक्त एवं स्वछन्द काव्यधारा के कवि थे I घनानंद इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं I

उक्त सभी कवियों ने अपने काव्य में कहीं न कहीं भारत के महान पर्व होली का उल्लेख अवश्य किया है I कबीर ने होली के माध्यम से अपनी कविता में आध्यात्मिक रंग बिखेरे है I उनकी दृष्टि में संसार का यह सारा क्रिया-कलाप होली के धमाल की  तरह है और इस खेल के समाप्त होते ही सबको अपने वास्तविक घर जाना है  I कबीर कहते है –

ऋतु फागुन नियरानी हो,
कोई पिया से मिलावे।
सोई सुदंर जाकों पिया को ध्यान है
सोई पिया की मनमानी,
खेलत फाग अंग नहिं मोड़े,
सतगुरु से लिपटानी।
इक इक सखियाँ खेल घर पहुँची,
इक इक कुल अरुझानी।
इक इक नाम बिना बहकानी,
हो रही ऐंचातानी।।

 मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य ‘पद्मावत’  में होली का वर्णन सहनायिका नागमती की वियोग दर्शाने के लिए बड़ी ख़ूबसूरती से किया है I नागमती सोचती है कि सारा संसार चाँचरि (होली में गाया जाने वाला एक राग और नृत्य मुद्रा ) जोड़ कर होली का उत्सव मना रहा है, जबकि उसका शरीर विरह के मारे होलिका की तरह धू-धू कर जल रहा है I इस दशा पर उसे क्रोध नहीं आता I यह तो उसके लिये   रोजमर्रा की बात है I वह तो अपने पति से केवल निहोरा ही कर सकती है  -

करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू ॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी । मोहि तन लाइ दीन्ह जस होरी ॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा । जरत-मरत मोहिं रोष न आवा ॥
राति-दिवस सब यह जिउ मोरे । लगौं निहोर कंत अब तोरे ॥

गोस्वामी तुलसीदास जैसे मर्यादित कवि भी होली के मार्दव से बच नहीं    सके I दोहावली में उनका होली वर्णन बहुत ही संक्षिप्त और मर्यादा में बंधा हुआ है I वे कहते है कि अवधपति राम अपने छोटे भाइयों और संगी साथियों के साथ फाग खेल रहे हैं I देवता फूल बरसा रहे हैं I उनकी शोभा अमित कामदेवों के समान है I मृदङ्ग, झाँझ, डफ और नगाड़े बज रहे हैं I  समयानुकूल सुन्दर एवं सरस शहनाई बज रही है I

खेलत फागु, अवधपति, अनुज-सखा सब सङ्ग |
बरषि सुमन सुर निरखहिं सोभा अमित अनङ्ग ||
ताल, मृदङ्ग, झाँझ, डफ बाजहिं पनव-निसान |
सुघर सरस सहनाइन्ह गावहिं समय समान ||


सूरदास ने होली के अनेक शब्द-चित्र बनाये हैं I निम्नांकित पद में गोपियाँ कृष्ण से फाग खेलकर अपने अन्तस का अनुराग प्रकट कर रही हैं i वे कृष्ण का बचन सुनने के लिए सज-धज कर निकली हैं I डफ, बांसुरीरुंज, महुअर तथा मृदंग बज रहे हैं I सब कृष्ण से फाग खेलने में अनुरत हैं और मनोहर वाणी में गा रहे है जिससे मन में हिलोरें उठती हैं I

हरि संग खेलति हैं सब फाग।

इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंगकसि कंचुकीकाजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढीसुनि माधो के बैन।।
डफबांसुरीरुंज अरु महुआरिबाजत ताल मृदंग

अति अनुराग मनोहर बानी गावत उठत तरंग

 प्रेम की दीवानी मीराबाई का इससे बढ़कर क्या सौभग्य हो सकता है कि वे कृष्ण से होली  खेलें I मीरा कहती हैं कि वह रंग और राग (प्रेम) से भरी हैं I उन्होंने श्याम से होली खेली है I गुलाल उड़ने से कृष्ण का बादल जैसा रंग लाल हो गया है I पिचकारी के उड़ते रंग से पानी की झड़ी लग गयी है I मीरा की गागर चोआ चंदन,अरगजा और केसर से भरी है I चतुर कृष्ण की दासी मीरा अपने प्रिय के चरण की शरण में हैं I

होली खेल्यां स्याम संग रंग सूं भरीरी।।
उडत गुलाल लाल बादला रो रंग लाल।
पिचकाँ
 उडावां रंग रंग री झरीरी।।
चोवा चन्दण अरगजा म्हाकेसर णो गागर भरी री।
मीरां दासी गिरधर नागरचेरी चरण धरी री।।

 

अब्दुर्रहीम खानखाना के निम्नांकित दोहों में होली के चित्र प्रायशः उपदेशपरक हैं I वह कहते है अधर्म से कमाया धन नष्ट होते देर नहीं लगेगी I होलिका ने कपट से होलिका सजाई और जलकर मर गयी I अगले दोहे में उनका अनुभव बोलता है कि काले रंग वाली कुंजड़िन जो सोया नामक साग बेचती है ,वह यह कार्य करते-करते निर्लज्ज हो गई है और हमेशा गाली देकर बात करती है मानो फाग खेल रही हो I तीसरे दोहे में रहीम ने उस मजदूरिन की व्यथा व्यक्त की है जिसे होली के दिन भी खेत से कौए भगाने का कार्य सौंप दिया गया है I रहीम की बड़ी ही मौलिक उद्भावना चौथे दोहे में मिलती है, जिसमें वे यह कहते है कि फागुन माह में यदि नर-नारी काम-पीड़ित हो जाते है तो इसमें अचरज की क्या बात है, जब पेड़ तक अपने पत्ते झाड कर नंगे खड़े हो जाते है I तुलसी मानस में कहते है कि – ‘जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥‘

रहिमन वित्‍त अधर्म को, जरत न लागै बार।
चोरी करी होरी रची, भई तनिक में छार॥

भाटा बरन सुकौंजरी, बेचै सोवा साग ।
निलजु भई खेलत सदा, गारी दै-दै फाग ॥

लोग लुगाई हिल मिल, खेलत फाग ।
पर्यौ उड़ावन मोकौं, सब दिन काग॥

नर नारी मतवारी, अचरज नाहिं ।
होत विटप हू नाँगे फागुन माँहि ॥

 रसखान के काव्य में होली के बहुत से दृश्य हैं I इतने कि उनकी अलग से एक अच्छी चर्चा की जा सकती है I यहाँ उनका एक ही सवैया निदर्शन के रूप में प्रस्तुत है ,जिसमें एक आगतयौवना की होली क्रीडा का चित्र है I वह सुकुमारी आनंद की उठान में अपनी मुठ्ठी में लाल गुलाल तान कर चपल गति से चलती है I वह बायें हाथ से घूंघट पकड़े कर ओट किये है और तीखे नयन बाण से करारी चोट करती है I करोड़ों बिजलियों के समूह का वह अपने पाँव से मर्दन कर बाजी जीत आई है और अब सयानों  के झुण्ड से आ टकराई है, जो उसको मींजना चाहते हैं पर वह हाथ नहीं आती उन्हें बस हाथ मींजना ही हाथ लगता है और वे सुखपूर्वक सकुचाते रह जाते हैं I  

गोरी बाल थोरी वैस, लाल पै गुलाल मूठि -

तानि कै चपल चली आनँद-उठान सों।

वाँए पानि घूँघट की गहनि चहनि ओट,

चोटन करति अति तीखे नैन-बान सों॥

कोटि दामिनीन के दलन दलि-मलि पाँय,

दाय जीत आई, झुंड मिली है सयान सों।

मीड़िवे के लेखे कर-मीडिवौई हाथ लग्यौ,

सो न लगी हाथ, रहे सकुचि सुखान सों॥

 रीतिसिद्ध कवि बिहारी के होली वर्णन में उद्दीपन का संचारी भाव प्रायशः अधिक दिखता है I यहाँ प्रस्तुत दोहों में से प्रथम में नायिका ज्यों-ज्यों उझककर अपने शरीर को ढाँपती है या झुक जाती है या हँसकर डरने की चेष्टा करती है, त्यों-त्यों अबीर की झूठी मुठ्ठी जिसमे अबीर है ही नहीं उससे नायिका को और अधिक भयभीत करता जाता है I दूसरे दोहे का प्रसंग यह है कि लज्जाशीला नायिका घूँघट काढ़े नायक की ओर पीठ किये खड़ी है । नायक उसपर ताबड़तोड़ अबीर डाल रहा है । इतने में नायिका भी तमक-कर, कुछ मुड़कर, घूँघट को हाथ से हटाते हुए नायक पर अबीर की मूठ चला देती है। इसमें मूठ चलाना वशीकरण की क्रिया करने जैसा है I नायक वशीकरण करना चाहता था पर तब तक नायिका अपना दांव दिखा देती है I तीसरे दोहे में अबीर की मुट्ठियाँ नायक और नायिका दोनों एक साथ चलाते हैं I मुठ्ठी छूटने के साथ लोक-लज्जा और कुल-मर्यादा भी छूट जाती है क्योंकि दोनों के हृदय, नयन और अबीर एक एक साथ ही चलकर एक दूसरे को लगते हैं I इस क्रिया में दोनों के नेत्र आपस में टकराते हैं और उनका दिल एकाकार हो जाता है ।

जज्यौं उझकि झांपति बदनुझुकति विहंसि सतराय।
तत्यौं गुलाब मुठी झुठि झझकावत प्यौ जाय ।।
पीठि दियैं ही नैंक मुरिकर घूंघट पटु डारि।
भरि गुलाल की मुठि सौं गई मुठि सी मारि।।

छुटत मुठिनु सँग ही छुटी लोक-लाज कुल-चाल।
लगे दुहुनु इक बेर ही चलि चित नैन गुलाल॥

 रीतिबद्ध कवि पद्माकर ने भी होली को आलम्बन मानकर कई छंद रचें है किन्तु यहाँ उनका वह छंद निदर्शन हेतु प्रस्तुत है जो साहित्य जगत में बहुत समादृत हुआ है  I इस सवैया के अनुसार अभीरों अर्थात ग्वाल-बालों की फागुनी भीड़ में नायिका बाल-कृष्ण को घर के भीतर ले जाती है और वहां उनके ऊपर अबीर की झोली उलट कर अपने मन की कर लेती है यहाँ तक कि कृष्ण की  कमर से उनका पीताम्बर तक खोल लेती है I फिर गालों में रोली मलकर और नैनों को नचाकर मुस्कराते हुए कहती है कि लला दोबारा फिर होली खेलने आना I  
फागु की भीर अभीरन में गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी।

भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाइ अबीर की झोरी॥

छीन पितंबर कम्मर तें, सु बिदा कै दई मीड़ि कपोलन रोरी।

नैन नचाइ, कह्यौ मुसक्याइ, लला! फिर आइयो खेलन होरी॥

 रीतिमुक्त कवि घनानंद ने होली पर अनेक छंद रचे है I यहाँ जो छंद प्रस्तुत है  उसमे कवि अपनी प्रेयसी सुजान से अपनी तुलना करते ही कहता है कि उस बेचारी के पास इतना पानी ही कहाँ है, वह तो होली के दिनों में भी महज पिचकारी लिए रहती है, जबकि मेरे पास आंसुओं की नदी है अर्थात पानी का कोई अभाव नहीं है I सुजान अपने शरीर में पीलापन लाने के लिए केसर और हल्दी लगाती है लेकिन उसमें वह पीलापन कहाँ रचता है, जैसा उसके बिछोह में कवि के शरीर पर रक्त की कमी से रचा जाता है I होली की चांचर का चोप अर्थात उत्साह तो अवसर या समय ही छुडा देता है लेकिन कवि के हृदय में चिता की जो चहल-पहल या धमाल है वह शरीर में पगी हुई है और वह समय निरपेक्ष है I सुजान रूपी आनंद मेघ की वर्षा के बिना कवि के शरीर की तपन नहीं बुझेगी और विरह वेदनी होली के सदृश्य उसके हृदय को सदैव जलाती रहेगी   

कहाँ एतौ पानिप बिचारी पिचकारी धरै,

आँसू नदी नैनन उमँगिऐ रहति है।

कहाँ ऐसी राँचनि हरद-केसू-केसर में,

जैसी पियराई गात पगिए रहति है॥

चाँचरि-चौपहि हू तौ औसर ही माचति, पै-

चिंता की चहल चित्त लगिऐ रहति है।

तपनि बुझे बिन आनँदघन जान बिन,

होरी सी हमारे हिए लगिऐ रहति है॥

 उक्त निदर्शनों से यह स्पष्ट होता है कि होली का आलम्बन कवियों ने केवल मांसल सौन्दर्य दर्शाने के लिए ही नहीं किया अपितु मानव मन की गहन अनुभूति को होली के उपादानों के माध्यम से चित्रित करने की कोशिश की है I यद्यपि रीतिकाल के पद्माकर जैसे कवियों ने पाठक के मन में मादकता का संचार करने के लिए होली चित्रण के ब्याज से नारी के शरीरांगो और चेष्टाओं का उत्तेजक वर्णन भी किया है, पर उस स्वरुप को इस लेख में नही दर्शाया गया है, क्योंकि -‘कीरति भनिति भूति भलि सोई I सुरसरि सम सबकर हित होई II   

 

 (मौलिक/अप्रकाशित )

 

 

 

 

 

Views: 1239

Reply to This

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"तकनीकी कारणों से साइट खुलने में व्यवधान को देखते हुए आयोजन अवधि आज दिनांक 15.04.24 को रात्रि 12 बजे…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, बहुत बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय समर कबीर जी हार्दिक धन्यवाद आपका। बहुत बहुत आभार।"
yesterday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जय- पराजय ः गीतिका छंद जय पराजय कुछ नहीं बस, आँकड़ो का मेल है । आड़ ..लेकर ..दूसरों.. की़, जीतने…"
yesterday
Samar kabeer replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब, उम्द: रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a blog post

ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना

याद कर इतना न दिल कमजोर करनाआऊंगा तब खूब जी भर बोर करना।मुख्तसर सी बात है लेकिन जरूरीकह दूं मैं, बस…See More
Saturday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"मन की तख्ती पर सदा, खींचो सत्य सुरेख। जय की होगी शृंखला  एक पराजय देख। - आयेंगे कुछ मौन…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"स्वागतम"
Saturday
PHOOL SINGH added a discussion to the group धार्मिक साहित्य
Thumbnail

महर्षि वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीकिमहर्षि वाल्मीकि का जन्ममहर्षि वाल्मीकि के जन्म के बारे में बहुत भ्रांतियाँ मिलती है…See More
Apr 10
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी

२१२२ २१२२ग़मज़दा आँखों का पानीबोलता है बे-ज़बानीमार ही डालेगी हमकोआज उनकी सरगिरानीआपकी हर बात…See More
Apr 10
Chetan Prakash commented on Samar kabeer's blog post "ओबीओ की 14वीं सालगिरह का तुहफ़ा"
"आदाब,  समर कबीर साहब ! ओ.बी.ओ की सालगिरह पर , आपकी ग़ज़ल-प्रस्तुति, आदरणीय ,  मंच के…"
Apr 10
Ashok Kumar Raktale commented on Ashok Kumar Raktale's blog post कैसे खैर मनाएँ
"आदरणीय सुशील सरना साहब सादर, प्रस्तूत रचना पर उत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत-बहुत आभार। सादर "
Apr 9

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service