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ओबीओ लाईव लघुकथा गोष्ठी अंक-31 में सम्मिलित सभी लघुकथाएँ

(1). आ० मोहम्मद आरिफ जी
कलयुग
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धर्म , नैतिकता , मानवता , सदाशयता , सच्चरित्र , अहिंसा , ईमानदारी और संस्कृति ने संयुक्त रूप से ईश्वरीय-दूत को ज्ञापन सौंपते हुए कहा-" अब हमारा इस धरती पर रहना बहुत ही दुभर हो गया है । अत: यह ज्ञापन ईश्वर तक पहुँचा दें ।"
जैसे ही दूत ने ज्ञापन अपने हाथों में लिया उसके हाथ जलने लगे और देखते ही देखते वह धूँ -धूँ कर पूरा जल गया।
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(2). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
'फ़रिश्ते' अॉनलाइन

"यह पीढ़ी तो मोबाइलों और लेपटॉप्स पर ऐसे भिड़ी रहती है, जैसे कि जन्नत की सैर कर रहे हों!"
"जन्नत की सैर नहीं जनाब! दोज़ख़ में भटक रहे होते हैं ये लोग!"
"सत्यानाश हो ऐसे इन्टरनेट का, ऐसे डिजीटाइजेशन का!"
शाम को पार्क में कुछ युवाओं की गतिविधियां देखकर, वहां टहल रहे कुछ बुज़ुर्ग आपस में चर्चा कर रहे थे।
शर्मा जी ने अपनी छड़ी घुमाते हुए कहा- "देखो साहब! 'जहां चाह, वहां राह' वाली बात है! अपने-अपने ज़रियों से सब अपनी-अपनी जन्नतें, अपने-अपने स्वर्ग ढूंढते हैं आजकल!"
"लेकिन इस पीढ़ी की जन्नत तो आभासी रिश्तों के सुख में है; डिजीटल सेक्स में है या फूहड़पन में! बरबाद हो गई यह पीढ़ी, भाई!" चौहान साहब ने पीपल के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठते हुए कहा। उनके साथी भी वहीं बैठ कर अनुलोम-विलोम प्राणायाम योग करने लगे।
"चौहान साहब! पहले तोलो, फिर बोलो! आप हमेशा नकारात्मक ही क्यों सोचते हो? ज्ञान-विज्ञान, अध्ययन-अध्यापन से लेकर संगीत-साहित्य, खरीदने-बेचने और लेन-देन तक सब कुछ तो कितना आसान हो गया है!"
"ठीक कहते हो शर्मा जी आप! लेकिन 'चिराग़ तले अंधेरा' जैसी बात भी है न! जो भोगते हैं, वही जानते हैं।"
"क्या मतलब?"
"बेमतलब के रह गए असली रिश्ते! रसहीन, बेमानी हो गई ज़िन्दगी!" यह कहते हुए शर्मा जी की आंखों में आंसू छलक पड़े।
तभी उनके समर्थन में उनके एक साथी पार्क के युवाओं को देख कर बोले:
"मशीन माफ़िक बन कर लोग सोच रहे हैं कि 'फ़रिश्ते' अॉनलाइन मिलते हैं, जो उनका कल्याण करते हैं; जबकि सच तो यह है कि सबके 'अपने' फ़रिश्ते घंटों यूं ही अॉनलाइन रह कर 'असली जन्नत' को 'दोज़ख़' बना रहे हैं!"
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(3). आ० सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी
*श्राद्ध*

पंडित जी श्राद्ध के लिए क्या कह रहे थे? मेज पर रखे अखबार को हाथ में लेते हुए नेहा ने प्रश्न किया।
राजेश थोड़ा मुँह बिचकाते हुए बोला- 'अरे कहेंगे क्या? वही ढोंग ढकोसले, सनातन परम्परा की दुहाई। गायों का दान, ब्राह्मणों को खिलाना औऱ क्या।
'तो क्या आप मम्मी पापा का श्राद्ध नहीं करेंगे?' नेहा राजेश की ओर देखती हुई बोली।
एकदम से गम्भीर होते हुए राजेश बोला-'क्यों नहीं? पर अभी तक वे जीवित हैं या नहीं, इसका भी तो हमें सही-सही भान नहीं हैं।'
नेहा राजेश के मनोभावों को भाँपते हुए तुरन्त बोली- 'आप कितने दिन यूँही मम्मी पापा के लौट आने का इंतजार करते रहेंगे। केदारनाथ त्रासदी के भी 12 साल हो गए। अगर वे जीवित होते तो अब तक घर आ गए होते।'
राजेश भी उदास सा होकर बोल पड़ा- 'हाँ नेहा तुम ठीक कहती हो, अब मेरी भी उम्मीदें जबाब दे रहीं हैं। सोच रहा हूँ कि अब उनका श्राद्ध कर ही दिया जाए, पर अलग ढंग से, न कि जैसे पंडित जी या समाज कह रहा है।'
अलग ढंग से का क्या मतलब? खुलकर बताइए। यह कहते हुए नेहा भी राजेश के सामने पड़े सोफे पर बैठ गईं।
राजेश भावुक होते हुए बोल पड़ा- 'नेहा मुझे वह दिन याद है जब मैं बाहर पढ़ रहा था और घर के हालात बेहद बुरे थे, पापा पाई पाई जोड़कर मेरी फीस भर रहे थे, मम्मी एक अदद नई साड़ी के लिए तरस जाती थीं। मेरी जरुरतों को पूरा करने के लिए अपनी लगभग हर इच्छाओं का उन्होंने त्याग कर दिया था। मेरे लिए उनसे बढ़कर कोई फ़रिश्ता नहीं। उनके निरन्तर प्रोत्साहन और आशीष का ही नतीजा है कि आज मैं इतनी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी का सीईओ हूँ।'
नेहा राजेश का हाथ पकड़ते हुए बोली-आप इन बातों का इन 12 सालो में मुझसे क़ई बार जिक्र कर चुके हैं। मैं आपकी भावनाएं समझती हूँ। पर श्राद्ध की बात..
राजेश नेहा की बात काटते हुए बोला- नेहा क्या अतीत में जिन फरिश्तों ने हमारे लिए इतना कुछ किया उनके प्रति हमारा कर्तव्य केवल श्राद्ध तक ही सीमित है।
नेहा राजेश के कंधे पर सिर रखते हुए बोली- 'फिर भी जो सामाजिक मान्यताएं हैं, हमे उनका निर्वहन करते हुए श्राद्ध तो करना ही होगा।'
राजेश नेहा की ओर मुँह करके बोला- 'मैंने कब कहा कि मैं श्राद्ध नहीं करूँगा! नेहा मैं चाहता हूँ कि मेरे मम्मी पापा की पदचाप और आवाज निरन्तर मेरे कानों में गूँजती रहें। वे हमेशा मेरे आँखो के सामने रहें।'
यह कैसे सम्भव है? नेहा माथे पर बल देती हुई बोल पड़ी।
राजेश दार्शनिक अंदाज में बोला- 'संभव है नेहा, बस तुम्हे मेरा साथ देना होगा।'
'मैं तो आपके हर नेक फैसले के साथ हूँ, पहले आप बतायें तो।' नेहा बोल पड़ी
राजेश बोला-'हमने जो घर मम्मी पापा के नाम पर बनवाया है, उसमें वृद्धाश्रम खोल दिया जाए। हम आश्रम में आने वाले वृद्धों की यथासम्भव सेवा करेंगे, और उन्ही बुजुर्गों में हम अपने मम्मी पापा का अक्स भी पाते रहेंगे।
और श्राद्ध? नेहा विस्मय भरी आवाज में बोली।
राजेश पुनः समझाते हुए बोला- 'नेहा जब एक साथ अनेक फ़रिश्ते एकही छत के नीचे आराम से अपने आखिरी दिनों में चैन की सांस ले रहे होंगे तब मम्मी पापा की आत्माएं जहाँ भी होंगी, सकून महसूस करेंगी। और यहीं हमारी मम्मी पापा के प्रति सच्ची श्राद्ध होगी।'
नेहा ने सहमति में सिर हिला दी।
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(4). आ० तसदीक़ अहमद खान जी
नसीहत
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घंटी की आवाज़ सुनते ही नरेश ने बेटे सुरेशको आवाज़ देकर कहा"देखो बाहर कौन है "
सुरेश ने पास आ कर कहा "आप मुझ से झूठ क्यों बुलवाते हैं ,पहले नाम और काम पूछो फिर आपसे पूछ कर गेट खोलूं "
नरेश ने सुरेश को डांटते हुए कहा "जैसा कहा जाए वैसा करो " सुरेश ने फिर हिम्मत दिखाते हुए कहा
"झूट बोलना पाप है,बच्चे मासूम फरिश्तों की तरह मन के सच्चे होते हैं ,क्या यह किताबों में हमें गलत पढ़ाया जाता है"
यह सुनते ही नरेश का पारा नीचे उतर गया वह प्यार से बोला "बेटा दीवाली पर दोस्तों से रुपये उधार लिए थे जो
में जुए में हार गया ,वह आ गए तो मुहल्ले में इज़्ज़त खराब हो जाएगी"
सुरेश परिस्थितियों को समझ कर बाहर गया ,उसके कुछ दोस्त गेट के बाहर खड़े थे ,पिता से पूछ कर उन्हें ड्राइंग रूम में बिठा दिया ।माताजी ने बच्चों को मिठाई खाने को दी ,उसके बाद सुरेश के पिता ने आकर जैसे ही बच्चों को गिफ्ट देकर आशीर्वाद दिया ,उन बच्चों में एक बच्चा भी था जिसके पिता से नरेश ने रुपये उधार लिए थे ,वो फौरन बोल पड़ा"एक घंटा पहले मेरे पिता जी तुम्हारे घर आये थे तब सुरेश तुम ने उनसे बोला था "पिता जी घर पर नहीं हैं?"
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(5). आ० सुनील वर्मा जी
रोबोट

"चेतन, बेटा सुन..जरा इस मीटर को देख न | मेरे कमरे की बिजली अचानक से चली गयी जबकि बाकि पूरे घर में तो रोशनी है|"
"अररे दादाजी, मुझे थोड़े ही न यह सब आता है| इसके लिए तो किसी इलेक्ट्रिशियन को बुलाना पड़ेगा|"
"तू भी तो इंजीनियरिंग ही पढ़ रहा है| फिर.."
सवाल सुनकर चेतन ने अपने दादाजी को किसी नादान बालक की तरह देखा| पहले हँसा फिर बोला "हे भगवान ! दादाजी अब आपको कैसे समझाऊँ..? वह अलग चीज़ होती है और यह अलग|"
दादाजी को अपनी बात समझाने के लिए वह आगे बोल ही रहा था कि घर का पुराना नौकर किसी काम से वहाँ आया| दोनों की बातचीत सुनकर उसने पूछा "क्या हुआ बाबूजी? "
"अररे देख न हरिया, पूरे घर की लाईट आ रही है मगर मेरे कमरे में अँधेरा है|" दादाजी ने अपनी परेशानी दोहरायी
"लगता है आपके कमरे का फ्यूज़ उड़ गया|" कहकर हरिया ने इधर उधर देखा|
एक तरफ रखे तार के टुकड़े पर नज़र गयी तो उसने तार में से एक छोटा टुकड़ा काटा| फिर मीटर के पास से एक स्विच निकालकर उसमें तार बाँधा| जैसे ही उसने स्विच को यथा स्थान पर वापस लगाया वैसे ही दादाजी के कमरे में रोशनी हो गयी|
हरिया और दादाजी की आखें एक नज़र चेतन को देखने के बाद जब आपस में मिली तो दोनों के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी| उन्हें मुस्कुराता हुआ देखकर चेतन झेंप गया| वहाँ से निकलते हुए वह बोला "हाँ हाँ ठीक है| मगर इंजीनियरिंग अलग होती है|"
दादाजी के चेहरे पर अब मुस्कुराहट की जगह चिंता थी|
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(6). आ० महेंद्र कुमार जी
पवित्र पुस्तकें
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विद्वत जनों की एक बहुत बड़ी सभा लगी थी जिसमें विभिन्न धर्म और संस्कृति के लोग एकत्र थे। चर्चा का मूल विषय यह था कि किसकी पवित्र पुस्तकें श्रेष्ठ हैं।
"हमारी पुस्तक अपौरुषेय और श्रेष्ठ है। इसमें मानव जीवन के सभी पक्षों की सविस्तार चर्चा है।"
"नहीं, आपके ग्रन्थ में बहुत कुछ मनुष्यों ने अपने से जोड़ा है। जबकि हमने उसका मूल रूप सुरक्षित रखा है। इसलिए पुस्तक तो केवल हमारी श्रेष्ठ है।" दूसरे प्रतिभागी ने पहले का प्रतिवाद करते हुए कहा।
"अच्छा! पर पहले कौन सी पुस्तक आयी है? हमारी न। तो प्राचीनतम होने के कारण कौन श्रेष्ठ होगी?"
"आपकी पुस्तक पहली है तो हमारी आख़िरी है। श्रेष्ठ पुस्तक कौन सी होती है? बाद के संस्करण वाली या पहली?"
"मतलब ईश्वर ने जो सबसे पहले पुस्तक भेजी वह अपूर्ण थी। बाद में ईश्वर को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने भूल-सुधार करते हुए उसके अन्य संस्करण निकाले। आप कहना क्या चाहते हैं? ईश्वर अपने प्रथम प्रयास में अक्षम था? वह पूर्ण है कि अपूर्ण?"
"ईश्वर पूर्ण है, अपूर्ण तो आप और आपकी पुस्तकें हैं।" अब तक दोनों की बातें शान्ति से सुन रहे तीसरे विद्वान ने कहा। "यदि कालक्रम में हमारी पुस्तक बाद में आयी तो इसका यह अर्थ कहाँ से निकलता है कि वह अधम है? प्राचीनता अथवा नवीनता किसी पुस्तक को श्रेष्ठ नहीं बनाती। उसे श्रेष्ठ बनाती हैं उसमें कही गयी बातें, और इस सन्दर्भ में ईश्वर के सच्चे सिद्धान्तों का उल्लेख मात्र हमारी पुस्तक में है। वही सच्ची देववाणी है। इसलिए वही श्रेष्ठ है।"
खचाखच भरे सभागार में काफी समय तक इसी प्रकार वाद-विवाद का दौर जारी रहा। तभी एक अर्धनग्न फ़कीर जो बहुत देर से सभा के बाहर खड़ा हो कर उनकी बातें सुन रहा था, धड़धड़ाता हुआ अन्दर आया और लगभग चीखते हुए बोला:
"आपका ईश्वर सिर्फ पवित्र पुस्तकें ही भिजवाता है या कभी-कभार एक-आध रोटी भी?"
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(7). आ० डॉ टी आर सुकुल जी
फरिश्ते

पिता के असामयिक निधन के बाद दिनेश को अपनी घरेलु जिम्मेवारियों के बीच आगे पढ़ाई जारी रखना असंभव था परन्तु , माॅं के प्रोत्साहन से अभावों के बीच भी उसने अपनी डिग्री पूरी कर अच्छी सरकारी नौकरी पा ली। रिश्तेदार या अन्य लोग जो कभी हाल चाल भी नहीं पूछते थे अब निकटता बढ़ाने लगे और, प्रायः रोज ही एक न एक, जाने अन्जाने लोग विवाह के लिए प्रस्ताव लाने लगे। दिनेश सभी से विनम्रता पूर्वक यह कह कर टालता जाता कि अभी उसे भाइयों को पढ़ाना है, घर की आर्थिक स्थिति को सुधारना है, इसके बाद ही कुछ निर्णय करेगा।
इसी क्रम में, धन और पद का प्रभाव डालते हुए उसके विभाग के एक अधिकारी ने भी यही प्रस्ताव दिया पर उसने अपनी पारिवारिक और आर्थिक स्थिति उनके समकक्ष न होने के विचार से मौन रहना चाहा तब, वे सज्जन बोले,
‘‘अरे, क्यों चिन्ता करते हो संबंध तो हो जाने दो, सब अनुकूल हो जाएगा’’
‘‘ नहीं सर ! हमारा ग्रामीण परिवेश में ढला निम्न स्तरीय परिवार, आपकी प्रतिष्ठा और शहरी उच्च स्तर से बहुत छोटा है। आपकी बेटी मेरे घर में वह सुविधाएं नहीं पा सकेगी जो आपके घर में सहजता से उपलब्ध होती हैं इसलिए, यह संबंध उचित नहीं है।’’
‘‘ पर तुम्हें कौन सा गांव में ही रहना है, हमारे यहाॅं शहर में रहना, वहीं पर ट्रान्सफर करा देंगे ’’
‘‘ सर ! अपने घर में उजाला करने के लिए आप, मेरे घर में अंधेरा क्यों करना चाहते हैं ?’’
‘‘ डियर फ्रेंड ! अपने सुनहरे भविष्य को क्यों दुतकार रहे हो ?’’
‘‘ सर ! आपकी दयालुता के लिये आभार। लेकिन, मेरा सीधा सादा मन कहता है कि मेरा सुनहला भविष्य मेरे पराक्रम की नीव पर ही स्थिर रह सकेगा किसी फरिश्ते की कृपा पर नहीं। ’’
सुनते ही , आफीसर की कार का हार्न जोर से बज उठा।
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(8). आ० डॉ विजय शंकर जी
औटोमेटेड वर्ल्ड - एक काल्पनिक कहानी

दुनिया उस युग में पहुँच चुकी है जब आदमी आदमी से बहुत दूर हो चुका है। हर आदमी के पास आदमी के अपने अपने विविध प्रतिरूप हैं , रोबोट हैं , कैलक्युलेटर्स हैं। हर काम के लिए मशीने हैं , मशीनी आदमी हैं। सब विश्वसनीय , कम खर्चीले , मालिक की इच्छानुरूप काम करने वाले, अपनी कोई इच्छा प्रकट न करने वाले , कोई मांग न करने वाले । हो भी क्यों न , आदमी पूर्ण स्वतंत्र और ऑटोमेशन के युग में जो आ चुका। थक गया था आदमी आदमी से , उसकी अपनी अपनी सोच से , पारस्परिक दिन प्रतिदिन की प्रतिस्पर्था से। आज वह मुक्त है आदमी के तमाम झंझटों से। अब हर आदमी जब किसी दूसरे आदमी से बात करता है तो आदमी से नहीं आदमी के नंबर से बात करता है। लेनदेन करता है तो अंकों की बात करता है। दुनिया डिजिटल हो चुकी है। सड़क पर आते जाते आदमी को कभी कोई आदमी मिल भी जाए तो वह यह सोच कर रास्ता दे देता है कि कोई रोबोट या प्रतिरूप होगा।
ऐसी ही चमत्कृत दुनिया में एक आदमी अपनी धुन में खोया हुआ कहीं पैदल जा रहा था कि उसके सामने उसी की तरह अपनी धुन में खोया हुआ कोई आ रहा था , एक नज़र उसने उसे देखा और सोचा कोई प्रतिरूप होगा , खुद हट जाएगा मेरे सामने से , और चलता रहा और अचानक उस आदमी से टकरा गया। दोनों गिर पड़े। उठते हुए दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और एक साथ बोले , " तुम्हारा सिग्नल काम नहीं कर रहा है , क्या ? "
फिर दोनों एक दूसरे से एक सा प्रश्न सुनकर फिर एक साथ बोल पड़े ," तो आप भी डिजिटल नहीं हैं ? "
" नहीं भाई , नहीं " दोनों एक साथ बोल पड़े।
" हम दोनों आदमी हैं तो आइये कुछ देर बैठ कर बातें कर लें " . एक ने कहा।
" आदमी कहाँ , साहब , आदमी नाम तो हम कब का मशीनों को दे चुके , आप तो आज हमें एक फ़रिश्ते के रूप में टकरा कर मिले हैं " दूसरे ने कहा और उनका हाथ पकड़ कर उन्हें पास के एक औटोमेटेड रेस्ट्रॉं में ले गया।
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(9). आ० राहिला जी
पापी फ़रिश्ता
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कल से उसे अपनी खिदमत में लगा देख, वह उससे बोला -
"दिल जीत लिया बच्चे! अब तू भी सो जा, कब तक पैर दबायेगा?"
"आप सो जाईये तो मैं भी सो जाऊँगा।आपको अभी भी बुखार है।"
"समझ नहीं आता तुझसे मेरा क्या रिश्ता है।कल जब मुझे यहाँ शिफ्ट किया जा रहा था, तब सोचा भी नहीं था कि जेल में औलाद जैसा सुख मेरा इंतेजार कर रहा है ।हा ..हा ..हा .." वह खनक कर हंस दिया ।
"आप बीमार है।इतने बुजुर्ग हैं । मेरी जगह कोई भी होता तो यही करता।"
"तू बहुत मासूम है रे!" सुनकर वह मुस्कुरा उठा।
"वह सब छोड़िये, मैं आपसे कल से पूछना चाह रहा हूँ, आप यहाँ किस जुर्म में?"
"मैं यहाँ किस जुर्म में?"
उसने ठंडी साँस छोड़ कर, प्रश्न दोहराया और फिर गोल सा उत्तर थमा दिया ।
"पुलिस कहती है मेरा बम धमाकों में हाथ था।"
" अच्छा...!..और आप क्या कहते हैं?"
"पिछले इतने सालों में कोई मां का लाल मेरी परछाईं तक नहीं छू सका बरखुरदार!लेकिन विभीषण को पहचानने में चूक हो गई ।और अंजाम तुम्हारे सामने है।"
वह अपनी झक सफ़ेद दाड़ी पर हाथ फिराते हुए बोला।
"इसका मतलब..."
"तू! मतलब को मार गोली।ये बता इतनी कम उम्र में तू यहां क्या कर रहा है? अभी तो तेरी मूछें तक नहीं आईं ढंग से।"
बूढ़े ने तनिक ठिठोली करते हुए कहा।
"क़िस्मत को रो रहा हूँ ।बेक़सूर हूँ"
"अरे...! तो फिर किस ज़ुर्म की सज़ा काट रहा है?"
"मैं भी बम धमाकों की.....,लेकिन अब्बा की क़सम मैनें कुछ नहीं किया। मेरा तो नाम ही काफ़ी था आतंकी होने के लिए।"कहते हुए वह नौजवान, बच्चों सा सिसक पड़ा।
"किस शहर में?"अबकी बूढ़ा बैचैनी से अपनी जगह उठ कर बैठ गया।
"इसी शहर में,पिछले साल ,पुराने चौक के पास।"
और जैसे ही उस बूढ़े ने ये बात सुनी...,ना जाने क्यूँ उसकी आँखें नम और पूरा बदन पसीना-पसीना हो गया।
"फिर क्या हुआ अब्बू?"नन्हें रहमान ने लेटे-लेटे पूछा।
"फिर ...,फिर कुछ दिनों बाद वह नौजवान बाइज्जत रिहा हो गया।
"ये कैसे हुआ अब्बू! उसे किसने रिहा करवाया?"
"उसी बूढ़े आदमी ने "अतीत की गहराइयों से खोई-खोई सी आवाज आई।
"अरे वाह ..,फिर तो वह कोई फ़रिश्ता होगा।"उसने ताली बजाते हुए कहा।
"पता नहीं बेटा!वह फ़रिश्ता था या शैतान?"
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(10). आ० डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
 फ़रिश्ते

काली रात . बेतहाशा बारिश . चिंघाड़ती हवा . रह-रह कर कडकती बिजलियाँ , सम्पूर्ण ब्लैक आउट .नेटवर्क ध्वस्त. मिसेज अलबर्ट बेचैनी से बिस्तर में पहलू बदल रही थीं . उसके पति अभी तक आफिस से घर नहीं आये थे . अलबर्ट की ड्यूटी 8 बजे सायं समाप्त होती थी और अभी रात के ग्यारह बज चुके थे . अलबर्ट का बेटा सो चुका था पर उसकी पत्नी को नींद कहाँ ? अचानक उसे लगा कि कोई उसके घर का दरवाजा भड़ाभड़ा रहा है .
दरवाजा खोलते ही तेज हवा का झोंका अंदर आया . पानी की बौछार से अलबर्ट की पत्नी सराबोर हो गयी , सामने सफेद कपड़ों में  लिपटे कुछ व्यक्ति उसे दिखाई दिए. वे आपस में कुछ बतिया रहे थे . उनमे जो सबसे आगे था उसने घरघराती आवाज में कहा -.मिसेज अलबर्ट , आपके पति ओलंपिया हॉस्पिटल में भर्ती है , आप तुरंत उनके पास जाइए वरना कुछ भी हादसा हो सकता है ‘
मिसेज अलबर्ट कुछ आगे पूंछती इससे पहले वे सफेदपोश बरसते पानी और अंधेरे में गुम हो गए . मिसेज अलबर्ट के पास कुछ सोचने-समझने का वक्त नही था . उन्होने सोते बेटे को जगाया . पोर्टिको से कार निकाली और बेटे को  साथ लेकर ओलंपिया का रुख किया . वार्ड-बेड  कुछ भी न मालूम होने से वह शेष रात भटकती रही , पर उसे अपने पति के बारे में कुछ भी पता नही चला. अब तक बारिश थम चुकी थी और ऊषा काल का प्रकाश फ़ैलने लगा था. मिसेज अलबर्ट ने निराश होकर घर वापस लौटने का निश्चय किया .
घर पहुंच कर उसने जो दृश्य देखा उससे उसकी रूह काप उठी . उसके घर के सामने भीड़ इकठ्ठा थी , आधा घर ढह चुका था . उसका पति घुटनों में सिर छुपाये रो रहा था. लोग उसे सांत्वना दे रहे थे. मिसेज अलबर्ट और बच्चे को ज़िंदा देखकर भीड़ में सुगबुगाहट फ़ैल गयी . अलबर्ट ने पागलों की तरह उन्हें गले लगा लिया – ‘ ओ गॉड, तुम लोग कहाँ गए थे , मैं सारी रात तुम लोगों को ओलंपिया हास्पिटल में तलाश करता रहा . कुछ सफ़ेदपोशो ने मुझे आफिस में आकर बताया था  कि तुम वहां भर्ती हो और कुछ भी हादसा हो सकता है , पर तम्हे वहां न पाकर मैं घर लौट आया और यहाँ की हालत देखकर मेरी सब्र का बाँध टूट गया . मैं तो तुम लोगों की उम्मीद ही खो चुका था .
‘ताज्जुब है - उसने आंसू पोंछते हुए कहा –‘ हम भी ओलंपिया से ही आ रहे हैं , मुझे भी रात में कुछ सफेदपोशों ने आकर बताया कि तुम वहां भर्ती हो और कुछ भी हादसा हो सकता है ’  
‘तो--------‘ अलबर्ट  ने सोंचते हुए कहा  –‘असली हाद्सा यह था . वे सफेदपोश जरूर फ़रिश्ते रहे होंगे वरना एक जैसा सन्देश इतनी रात और बारिश में देकर हमे घर से बाहर रहने को कोई क्यों मजबूर करता ?’
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(11). आ० बरखा शुक्ल जी
‘नीयत ‘
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डोर बेल बजने पर नीना ने सोचा इस समय कौन होगा , जेठ जी को इस समय आया देख उसे आश्चर्य हुआ , जेठ जी बोले “माँ और छोटू की मम्मी तो मिश्रा जी के घर भजन में गयी होगी । और छोटू कहाँ है ?”उन्होंने अपने आठ वर्षीय बेटे के बारे में पूछा ।
“वो सो रहा है ।”नीना ने बताया ।
ऐसा कह कर नीना अंदर जाने लगी ,तभी जेठ जी ने उसका हाथ पकड़ लिया , और बोले “मैं कब से मौक़ा तलाश रहा था, तुमसे अकेले में मिलने का , आज मिल ही गया ।”
नीना हाथ छुड़ाने की कोशिश करने लगी और बोली “ छोड़िए मुझे । वरना शोर कर दूँगी ।”
तभी वहाँ छोटू आ गया और बोला “पापा चाची को छोड़ो ,”ऐसा कह कर उसने अपने पापा की कलाई पर काट लिया । नीना का हाथ छूट गया ।
नीना बोली “ये काटने का निशान हमेशा आपको अपनी बुरी नीयत की याद दिलाएगा । “
छोटू बोला “चाची आप ठीक तो हो न ।”
“हाँ बेटा ,आज तुमने मुझे फ़रिश्ता बन कर बचा लिया ।सच ही कहते है बच्चे भगवान का रूप होते है । “ ऐसा कह कर नीना छोटू के साथ जेठ पर हिराकत भरी नज़र डाल कर कमरे से बाहर निकल गयी ।
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(12). आ० कल्पना भट्ट जी
फ़रिश्ते

"माँ ,कुछ खाने को दो न । " चार वर्षीय सुखिया ने अपने भूखे पेट पर हाथ फेरते हुए कहा ।
" हाँ रे ,तनिक रुक जा , छोटे को दूध पिला दूं पहले ।"
"जब देखो तब छोटे को चिपकाये रखती हो , मुझे तो आप देखतीं ही नहीँ । " कहते हुए सुखिया रोने लगा ।
"अब तू रो तो मत , देख तू तो बड़ा हो गया है, यह छोटे तो अभी छः महीने का ही हुआ है ,इसको दूध पिलाना जरूरी है।"
"अरे पर मुझे भी तो भूख लग रही है ....." गुस्से और दुखी मन से उसने अपनी माँ से कहा ।
"ओह हो ,तू भी न अच्छा देख अंदर छीके में शायद रात की रोटी पड़ी होगी ,खा ले । "
सुखिया अंदर जाकर देखता है ,छीका खाली था, उसने अपने पिता को वहां देखा जो पूरी तरह से नशे में धुत्त था , और उसने सुखिया के सामने ही रोटी का आखरी निवाला भी निगल लिया था |
"माँ ,ओ माँ यहाँ तो कोई रोटी नहीं है ,पिताजी ने खा ली ।"
"हे भगवान ,यह फिर आ गया , अब मैं कैसे समझाऊं ? सुनो तुमको थोड़ी से लाज लज्जा है कि नहीं ,मुफ़्त की रोटी तोड़ते रहते हो ।" पियक्कड़ पति से परेशान हो कर वह बोली ।
घर में अन्न का दाना तक न था ,छाती भी सूख गयी थी , पिचके हुए पेट से आख़िर दूध कब तक पिला पायेगी वह। सामने एक और बच्चा भूख से तड़प रहा था ।
कुछ देर रुककर उसने अपने बेटे का हाथ पकड़ा और बोली ,"चल बेटा , करीब के जंगल में चलते हैं ,वहां सच्चे फ़रिश्ते रहते है , कुछ न कुछ तो पेट भरने के लिए मिल ही जायेगा । "
बाहर जंगली फल दिखाई दे रहे थे , और पेड़ ममतामयी दृष्टी से उनकी तरफ देख बाहें फैला रहे थे |
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(13). आ० सीमा सिंह जी
पावन पतित

साइकिल पर पैडल मारता घर की ओर जाने वाली मुख्य सड़क पर बढ़ा ही था, कि सड़क की हलचल देख हौले से बुदबुदाया, “लगता है फिर कोई टक्कर हो गई।”
सड़क पर एक ओर खून के निशान थे। कुछ फटे कागज, एक पैर का जूता, टूटा चश्मा जिसका एक काँच चकनाचूर हो गया था...
गाड़ी से टूट कर बिखरा काँच, शाम की पीली पीली धूप में, स्वर्ण रज सा चमक रहा था।
मौसम में सर्दी बढ़ रही थी। उसने अपने गले में बेपरवाही से पड़े मफलर को कसकर लपेट लिया।
साइकिल की रफ्तार धीमी कर आस-पास खड़े लोगों से पूछा, “अब कौन गया?”
“टक्कर हो गई थी। पर ज़्यादा चोट नहीं लगी किसी के।”
प्रश्न पूछा अवश्य था, परंतु उसका ध्यान उत्तर से अधिक सड़क पर बिखरे सामान पर था।
साइकिल पर पीछे बैठी स्त्री ने अधीर होते हुए कहा, “अब चलो भी, सर्दी बढ़ रही है।”
“रुक तो सही! पिछली बार सोने की जंजीर यहीं तो मिली थी।”
अब स्त्री की निगाहें भी दुर्घटना स्थल का एक्सरे करने लगी थी।
“वो क्या पड़ा है?” स्त्री हौले से फुसफुसाई, और लपक कर नीचे पड़ा कागज़ का लिफ़ाफ़ा उठा लिया।
दोनों साइकिल पर बैठ घर की ओर बढ़ लिए।
“भारी लग रहा है। क्या होगा इस लिफाफे में?” स्त्री ने लिफाफे को टटोलकर अंदाज़ा लगाना चाहा।
“नोट होंगे!”
“नहीं, नोट तो नहीं लग रहे हैं।”
“प्रॉपर्टी के कागजात भी हो सकते हैं!” पति ने सुर्रा छोड़ा।
“हाँ, हाँ, क्यों नहीं! अपनी फैक्ट्री के कागज़ भी हो सकते हैं। कल से तुम वहाँ मजदूर नहीं मालिक की हैसियत जाओगे!”
“सुन, तुझसे सब्र नहीं हो रहा न? ला देख ही लूँ इसको फाड़कर।”
सड़क किनारे एकांत में साइकिल रोक, स्ट्रीट लाइट के नीचे उसने पत्नी के हाथ से लेकर लिफ़ाफ़ा दाएं-बाऐं नज़र घुमाते हुए किनारे से फाड़ कर हाथ पर पलट दिया।
“ये क्या है? रद्दी से कागज़ लग रहे हैं।” स्त्री के स्वर के साथ-साथ चेहरे पर भी निराशा छा गई।
“ज़रा मजमून तो पढ़... ला, इधर दिखा!” पुरुष ने कागज़ सीधे कर पढ़ते हुए बताया, “अरे! ये तो सरकारी कागज हैं। ओहो! किसी की नौकरी लगी है, बुलावा है!”
“चलो, चलो, बहुत जोर से सर्दी लग रही है! सूरज देवता भी अस्त हो गए।” हवा से सिहरती स्त्री हाथ में पकड़े लिफाफे और उसके भीतर से निकले कागज का बंडल बेरुखी से जमीन पर फेंक साइकिल पर बैठ गई।
“क्या करती है, भली मानस! कितनी उम्मीदें जुड़ी होगीं किसी की इस नौकरी से.”
पुरुष एक हाथ से साइकिल साधते हुए दूसरे हाथ से झुक कर सारे बिखरे हुए कागज़ समेट बुदबुदाया, “सुबह फैक्ट्री जाने से पहले डाकखाने में डाल देंगे। तू क्या जाने, एक सरकारी नौकरी एक इंसान की ही नहीं पूरे परिवार की तक़दीर बदल देती है।”
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(14). आ० मनन कुमार सिंह जी
फ़रिश्ते
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बुधिया की बेटी की लड़कीपुजाई के उपरांत लड़केवाले वापस गये,थकी हारी बुधिया खटिया पर लेटी टिमटिमाते बल्ब को देख रही है।तभी खटका हुआ,फूस का फाटक छितरा गया,लोगों के अंदर आने की आहट से वह उठ बैठी।'पड़ी रह बूढी', पहचानी-सी आवाज फुसफुसाई।
दो लोग उसके बगल में खड़े हो गए।उसे लिटा दिया।
'कुछ लोग तेरी बिटिया को उठानेवाले हैं,हम निगरानी करेंगे', विधायक पति बोला।दो लोग थोड़ी दूर जमीन पर लेटी सुगनी की तरफ बढ़ गए।'का ...काका,यह क्या?', सुगनी की घुटी-सी आवाज आई। सहमकर बल्ब भी बुझ गये।'क्यूँ, कौन,उँह.....' अँधेरे में तैरते रहे।सुरक्षा के खेल में शील नीलाम होता रहा।बस रक्षा दल बदलते रहे।सुबह बुधिया की आँख खुली तो घर में मजमा देखकर घबरा गई।सुगनी(बेटी)चिर निद्रा में थी।सब लोग घेरे हुए थे।दारोगा ने सवाल किया,'कैसे हुआ यह सब?'सभी चुप थे।सांत्वना देने के लिए बहुतेरे खड़े थे, हित मित्र,जिन्हें वोट दिया वो भी,जिन्हें पहले दिया वो भी,जिन्हें कभी न दिया वो भी।सबके चेहरों के दाग उजाले में झलक रहे थे।दारोगा ने फिर सवाल दुहराया।'दारोगाजी,हम तो रियाया हैं,रिरियाने के लिए।फरिश्ते तो ये सभी हैं, हरामी के पट्ठे।'और उसकी भी साँस की डोर टूट गई।
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(15). योगराज प्रभाकर
गाँधी अभी जिंदा है
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रात के सन्नाटे को रौंदती हुईं भारी फौजी बूटों की डरावनी आवाज़ें ज्यों ज्यों पास आ रही थीं त्यों त्यों उन तीनो की साँसें रुक रुक जा रही थींI आवाजें खामोश हुईं तो दरवाज़े को जोर जोर से पीटते हुए एक कर्कश स्वर गूंजा:
“दरवाज़ा खोलो!”
वे जड़वत बैठे एक दूसरे को देख रहे थे. लेकिन दरवाज़ा फौजी चोट बर्दाश्त न कर सका और अचानक भड़भडाकर खुल गया. अंदर घुसते ही भय से कांपते वृद्ध दम्पत्ति के पीछे खड़े एक किशोर लड़के को देखकर फौजी अफसर ने माथे पर पट्टी बंधे हुए एक जवान से पूछा:    
“क्या यही है वो?”
“जी! वही है सर येI” टॉर्च की रौशनी उसके चेहरे पर फेंकते हुए घायल जवान चिल्लाया: “उधर क्या दुबका बैठा है? बाहर निकल साले सूअर!”
“इसे माफ़ कर दो साहब, ये ऐसा लड़का नहीं है.” किशोर को कसकर अपने साथ लगते हुए हुए वृद्धा गिड़गिड़ाई.
“इसे बाहर ले जाकर बताते हैं कि फ़ौज पर पत्थर बरसाने वालों का क्या हश्र होता है.” एक अन्य उग्र जवान किशोर को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा. अफसर ने हाथ के इशारे से जवान को रुकने का आदेश देते हुए कहा:
“ठहरो.”
अफसर ने पास जाकर डर से कांपते हुए उस युवक की उस किशोर के चेहरे पर नज़रें गड़ाते हुए पूछा:
“क्या नाम है तेरा?”
“गलती हो गई साहिब, आइन्दा ऐसा काम नहीं करूंगा.” किशोर सूखे पत्ते की तरह काँप रहा था.  
“नाम बता अपना.” अफसर ने सख्त स्वर ने कहा.
“जी इसका नाम रौशन है.” वृद्ध ने हाथ जोड़ कर उत्तर दिया.
“और तुम लोग?”
“जी हम इस यतीम के दादा दादी हैं.”  
“क्या काम करता है तू?” युवक को संबोधित करते हुए अफसर ने पूछा.
“जी, ग्यारहवीं क्लास में पढता हूँ.” गले का थूक निगलते हुए उसने उत्तर दिया.
“तुझे पता है न कि फौजिओं पर हमला करना संगीन अपराध है?” अफसर का स्वर इस बार थोडा नर्म था.
“जी, पहली बार ऐसी गलती हुई! वो लड़के ज़बरदस्ती धमका कर साथ ले गये थे.”
“अगर अभी तुझे गोली मार दें, तो सोचा है तेरे दादा दादी का क्या होगा?”
“नहीं नही साहिब! ये गज़ब मत करनाI हम कल ही इसे इसके मामू के पास दिल्ली भेज देंगे.”
“क्या करता है इसका मामू?”
“जी कॉलेज में प्रोफ़ेसर है.”
“ठीक है बाबा, इसे जितनी जल्दी हो सके दिल्ली के लिए रवाना कर दो. अगर ये दोबारा यहाँ दिखाई दिया तो..” अपनी बंदूक की नली उसकी तरफ करते हुए अफसर ने कहा. फिर जवानों को आदेश दिया: “चलो यहाँ से सब!”  
दरवाज़े के बाहर पाँव रखते ही उस घायल जवान ने नाराज़गी व आश्चर्य भरे स्वर में पूछा:
“सर! आपने इस सपोले को जिंदा क्यों छोड़ दिया?”
पीछे मुड़कर उस किशोर की तरफ देखते हुए अफसर ने भावुक स्वर में उत्तर दिया:
“यार! मेरे भतीजे का नाम भी रौशन है और उसके बाल भी इसकी तरह ही घुंघराले हैं."
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(16). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी
‘जुगनू’

मान्यवर ,

मै अखबार पत्रिकाओं में आपके लेख पढता हूँ और आपकी बातों से कमोबेश सहमत भी होता हूँ I पर आज के अखबार में लिखे आपके लेख से मै पूरी तरह असहमत हूँ I आपके अनुसार देश में बढती धर्मान्धता और इन्टोलरेन्स के चलते देश का भविष्य खतरे में है I जी नहीं श्रीमान ऐसा बिल्कुल नहीं है I मेरे पास ना ही आप जैसी तर्क क्षमता है और न ही आंकड़ों का भण्डार, जिनमे लपेटकर मै अपनी बात रख सकूँ I मै बस पिछले हफ्ते की एक घटना आपसे साझा करना चाहता हूँ I

पिछले हफ्ते दिल्ली से मुंबई की रेल यात्रा के दौरान एक दंपत्ति से मिलना हुआ I सत्तर के आसपास के वो दोनों, पाँच बच्चों  के साथ थे I बच्चों की उम्र पाँच से आठ के बीच रही होगी I  दोनों पति पत्नी, बच्चों के साथ इतने मग्न थे कि सहयात्रियों की तरफ उनका ध्यान नहीं था I सीटों के प्रबंधन में मुझसे मिली सहायता के चलते वो मुझसे थोड़ा खुल गए I

दोनों पति पत्नी प्रशासनिक सेवा के उच्च पदों से सेवा निवृत थे I इन सब बच्चों को उन्होंने गोद लिया था I तीन वर्ष पूर्व उनके शहर में हुए दंगों की बलि चढ़े परिवारों के बच्चे थे वो सब I  अवकाश प्राप्ति के बाद उनकी भी बेटे के पास विदेश जाकर बसने की पूरी तैयारी थी I  पर इन बच्चों के जीवन में आ जाने के बाद सब कुछ बदल गया I उनके ही शब्दों में कहूँ तो  ‘’हम दोनों अब फिर से जवान हो गए हैं’''I

मेरा स्टेशन आने वाला था और मेरा चोर मन मुझे बार बार उकसा रहा था कि उनसे उनका नाम पूछूँ क्यों कि  दोनों के हाव भाव पहनावे और भाषा [ जो ज़्यादातर अंग्रेजी ही थी ] से उनके बारे में मै कुछ भी जान  नहीं  पाया था I नाम और वेश भूषा से अटकलें लगा लेने में हम भारतीय कितने कुशल होते हैं ये तो आप भी मानेंगे I पर अंततः मुझे ख़ुशी है कि मैंने उनसे उनका नाम नहीं पूछा I

मान्यवर ! ऐसे ही कितने जुगनू देश के अलग अलग हिस्सों में अंधेरों से लड़ रहे हैं I ज़रुरत है वातानुकूलित कमरों में बैठ कलम घिसाई से बाहर आकर, उन्हें पहचानने की I

आपका एक पाठक
क .ख .ग

पुनः ..मैंने अपना नाम नहीं लिखा और आप समझ गए होंगे क्यों I
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(17). आ० जनकी वही जी
सूफियान *

" ये लोग होते ही ऐसे हैं ? मिलकर रहना तो इनके ख़ून में ही नहीं ?"
ट्रेन के साथ तेज़ी से भागते भू-दृश्य के साथ -साथ उसका ग़ुस्सा भी कम होने का नाम नहीं ले रहा है। सीट के समायोजन को लेकर मचे महाभारत के बाद अब सब अपनी -अपनी सीट में सिमटे हुए थे।
" हम बारह लोग हैं ।हम एक साथ रहेंगे।हमें नहीं बदलनी सीट।"
कहा तो उस आदमी ने यही था पर लहज़ा ऐसा जैसे कोबरा ने डस लिया हो।और बात शायद बहुत बड़ी न होते हुए भी वह भड़क गई थी।
" बोलने की तमीज़ नहीं है।ये बारह एक साथ ही रहेंगे,ये ट्रेन नहीं कुम्भ का मेला है जहाँ ये बिछुड़ न जाएँ।"
मेरी आवाज़ में उभरा व्यंग दूसरे पक्ष को उकसाने वाला साबित हुआ फिर वह तू-तू-मैं-मैं शुरू हुई कि चेयर कार ट्रेन में हम लोगों को घूरते हुए ढेर सारे सिर उग आये।उन सिरों पर उभरी कैसी -कैसी आँखें ? उफ़ .... तमाशा देखती, मज़े लेती,उकसाती हुई , घृणा से भरी और तटस्थ।
कुल ढाई घण्टे का सफ़र अब युगों में बदल गया। उसकी बगल में ग्यारह-बारह साल का बच्चा और खिड़की की तरफ़ उसका वही बदजुबान चाचा बैठे हुए हैं। मैंनें पीछे बैठे वृद्ध सास -ससुर और बच्चों पर नज़र डाली जो तत्काल में टिकट लेने की वज़ह से अनमने से अलग-अलग बैठे हुए थे।
" हम सब घूमने आये हुये है।" आवाज़ मीठी और ठहरी हुई थी।मानों निर्जन वन में बहते दरिया की संगीतमयी प्रवाह।मैंने पलट कर बच्चे को देखा।
" मैं आपके गुस्से को देखकर डर गया था।" बच्चे के कोमल चेहरे पर जड़ी सुंदर आँखें देख मेरे चेहरे पर खिचीं सख़्त रेखाएं सहज ही ग़ायब हो गईं।
"कहाँ से आ रहें हैं आप लोग ?" बात की सिरा पकड़ा मैंने।
दक्षिण से हम सभी उत्तर भारत घूमने आएं हैं।सफ़र में बहुत परेशानी हुई इसलिए शायद चाचा ज़ोर से बोले।"
मैंने मुस्कुराकर उसे देखा और कहा- "आज बहुत गर्मी थी हम भी बहुत परेशान थे इसलिए गुस्सा आ गया।फिर हम दोनों ऐसे बतियाने लगे मानों वर्षों के परिचित हों।स्कूल, घर,शौक़, फिल्में, गाने, जीवन का लक्ष्य ,उसकी छोटी बहन और माँ की बातें ,अब माहौल खुशनुमा हो गया था।लगा मैं भी बारह साल की बच्ची हूँ जैसे।
मैंने कनखियों से देखा चचा ज़ान रुमाल से चेहरा ढके सीट से सिर टिकाये सोये थे।पर मैं समझ गई उनके कान जगे हुए और हमारी ओर लगे थे।
" देखो हमने कितनी सारी बातें कर ली पर आपका नाम नहीं पूछा मैंने।"
उसने मुस्कुराती आँखों से देखा और बोला -
" सूफियान।"
आज साल भर से ज्यादा हो चुका इस घटना को मैं सूफियान और उसके शांत,मीठे स्वभाव को भूल नहीं पाई ।
" शुक्रिया , सूफियान ! तुम सच में जिंदगी जीने का नज़रिया बदल गए मेरा। "

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(18). आ० राजेश कुमारी जी
आसान राह (फ़रिश्ते )

केंसर हॉस्पिटल के वार्ड नम्बर १७ जिसमे आठ बच्चे जिन्दगी और मौत  की जंग लड़ रहे थे के  बेड न० ३ के पेशेंट का सामान उठाने के लिए जैसे ही डॉ० सैनी ने  वार्ड  ब्वाय को कहा तो हमेशा की तरह बच्चों ने तीर की तरह चुभता हुआ  सवाल उछाल दिया-
“आरव कहाँ है ? कल रात से उसे वापस लेकर क्यूँ नहीं आये ”  बच्चों से नजर बचाते हुए  डॉ० सैनी  का मुस्कुराते हुए वही पुराना जबाब “उसके मातापिता घर ले गए वो ठीक हो गया था न” .

“ झूठ बोलते हो आप डॉक्टर अंकल,  हमें सच पता चल गया है सब बच्चों ने एक सुर में कहा . आज सुबह ही आरव ने हमको जगाकर बताया कि वो फ़रिश्ता बन गया  है जैसा कि  अंकल आप ही  हमें हमेशा कहते थे जो बच्चे  हँस कर  दर्द सहन करते हैं रोते नहीं वो अच्छे बच्चे फ़रिश्ते बन जाते हैं अब आरव भी फ़रिश्ता लोक में चला गया है  वहां उसे न कोई इंजेक्शन लेना पड़ता है  न ही कड़वी दवाई पीनी  पड़ती न ही कोई दर्द होता है वो बहुत मजे से है अब से हम भी उसकी तरह खुश रहेंगे वो  धीरे धीरे हमें भी वहाँ बुला लेगा हमसे प्रोमिस करके गया है”|
“लेकिन वो तो कल रात ही” ......उस वार्डब्वाय की बात पूरी होने से पहले ही डॉ०  सैनी उसको बाहर खींच कर ले गया. 

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(19). आ० इंद्रविद्यावाचस्पतितिवारी जी
फ़रिश्ते
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आज तक आपके सामने हमने अपनी जुबान नही खोली है इस बार भी मुझे माफ ही कर दें। आपकी आज्ञा मेरे सिर माथे पर। यह कहकर मुनीब ने अपना सिर उनके चरणों में झुका दिया। मुनीब ने जब सिर उठाया तो देखा कि उनकी आंखें आसंुओं से तरबतर थीं।
मुनीब को वह दिन याद आया जब वह इस शहर में पहली बार आया था। स्टेशन पर उतरने के बाद उसको यह नजर नहीं आ रहा था कि वह किधर का रूख करे। घर से चलते समय भी यह तय नहीं किया था कि कहां जाना है। मंजिल कहां है। स्टेशन पर उतर कर चारों तरफ देखते हुए देेख कर उन्होंने उससे पूछा था कि बे टेे कहा जाना हेै। इसका जवाब देते समय हुई देर से ही उन्हें यह ताड़ते देर नहीे लगी कि लड़का किसी उलझन में हेै। दयालुहृदय व्यक्ति का हृदय पसीजते देर नहीं लगी। उन्होंने उसका हाथ पकड़ लिया और बड़े प्यार से उससे बात की तथा उसे अपने साथ अपने घर लेकर आये। घर में यह घोषणा कर दी कि कल से मुनीब है यह हमारा दुकान का काम करेगा।
दूसरे दिन से आज तक मुनीब दुकान का काम देख रहा था। इस समय उसका संपर्क अपने परिवार से भी हो चुका था। घर वाले मुनीब की शादी तय कर चुके थे। शादी पर घर जाते समय धन की व्यवस्था को लेकर दोनों में वार्तालाप हो रहा था। मुनीब को यथोचित धनराशि व निर्देशों के साथ उन्होंने उसे घर विदा किया। इस आश्वासन के साथ कि यदि आवश्यकता हो तो उन्हेंे वह अधिक धनराशि हेतु निश्चिंत हो कर सूचित करेगा।
मुनीब अब रास्ते में था और सोच रहा था कि क्या फरिश्ते ऐसे ही होते है?
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(20). आ० लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
उपयोगी वेबसाईट

दफ्तर में पूरे समय लगन से कार्य करने वाले रामबाबू का सेवा-निवृति बाद समय गुजारना कठिन हो गया |  बच्चो की शिक्षा के लिए उनके लड़के योगेश कंप्यूटर खरीद लाये उसपर रामबाबू भी फेसबुक पर चेटिंग करने में कुछ समय गुजारने लगे | वहाँ कुछ कवितानुमा लिखा देख उनके एक मित्र ने उन्हें एक वेबसाईट का लिंक देकर उससे जुड़ने की सलाह दी | उस वेबसाईट पर उन्हें कुछ मार्गदर्शन मिलने लगा | उनकी  की एक रचना को सम्पादक ने सुंदर द्विपदियाँ बता प्रत्साहन स्वरूप माह का सक्रीय रचनाकार घोषित कर 1100/- और प्रमाण-पत्र भिजवाया |

रामबाबू को कई काव्य विधाओं में लिखते देख शहर के एक जाने माने परिचित कवि ने जब पूछा तो रामबाबू बोले “मैंने किसी पुस्तक का सहारा नहीं लिया साहब | जैसे कोई किसी गुरु के पास सीखता है, मेरा जीवन बदलने और सेवा-निवृति बाद के समय का उपयोग करने हेतु एक वेबसाईट के कुछ विद्वजन समझे या वह वेबसाईट मेरे लिए फ़रिश्ता  साबित हुई है और बहुत उपयोगी है |
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(21). आ० नयना(आरती)कानिटकर जी
"अनावरण"
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उनका जीवन तो खाना बनाने में ही बित गया था। चालीस वर्षो से सुबह शाम बस  परिवार और कभी-कभी मेहमानों के लिए  मनोयोग से भोजन बनाना। कहती थी भोजन की हांडी कुछ ही समय में खाली हो जाती है। पर पढे-लिखे लोग जो कागज़ पर लिख देते है वो नहीं मिटता। उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था पर  समाचार पत्र के पन्ने  हमेशा उलटती-पलटती घंटो बैठी रहती। कहती गाँव में कितनी ही महिलाएं है जिन्हें अपना हक नही मालूम, उनके लिए काम करना। वो खूद भी घर में दूध को दूध और पानी को पानी ही कहती और करती थी। बोलती थी नाहक पढी-लिखी बहू नही लाई ,तुम तो बस कलम चलाती रहो, मैं कलछी सम्हाल  लूँगी। तुम्हें तो वकील बनना है। गाँव की महिलाओ को अपना हक दिलाना। उनकी  बहुत इच्छा थी कि उनका  इकलौता बेटा वकालात करे मगर उनका  मन ....फिर हम शहर चले गये।
कुछ वर्ष वकालात सीखने और बच्चों की शिक्षा के बाद पुन: अपने घर लौट आए .....  वो एक रौ में बोलते चली जा रही थी और मैं बस नि:स्तब्ध सी उसको  देखती रही थी । उसका  पूरा का पूरा चेहरा आसूँओ से भीगा हुआ था।

"बहुत दिनों बाद मिली है हम  दोनों सहेलियाँ आज,बहुत कुछ है  कहने सुनने को हम दोनो के पास। मगर मैं तो बस अपनी ही ..."चेहरे को साड़ी के पल्ले से पोछते हुए उसने कहा।
मेरा  ध्यान ड्राइंग रुम में  सजी उस  तेजस्वी   मूर्ति  के  फोटो पर गया  जो बरबस ही  ध्यान खींच रही थी।
" सुन! ये तो वही है ना जिनकी मूर्ति का अनावरण कल न्यायालय परिसर में हुआ था।"
" सही पहचाना , यही मेरी सासू माँ हैं।"
"इस  छोटे से गाँव में  ब्याही तू! आज काले कोट मे देख तुझ पर गर्व होता है।"  मैने कहा
" सच मे सखी!  वे मुझे किसी दफ़्तर की कुर्सी पर बैठी देखना चाहती थी। "
 बहुत कुछ था उसके पास कहने  को .
उसके साथ साथ अब मेरी भी आँखें भर आई थी. मैं तो दूसरी बार उस अनावृत विशाल व्यक्तित्व के सागर में डूबकी लगा रही थी.
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(22). आ० तेजवीर सिंह जी
अनोखा रिश्ता

“बड़ी जीजी, आज कितने साल बाद मिली हो। सब ठीक तो है ना”?
"चंपा, मेरी बहिन, तू तो विदेश में थी| अब तुझे क्या बताऊँ?| तेरे जीजाजी की  अकाल मृत्यु के बाद  हम पर तो मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था | हम पर क्या क्या गुजरी थी, बस पूछ मत"?
"कैसे क्या हुआ था जीजी ,थोड़ा खुलासा करो ना"?
"तेरे जीजाजी को खेत में काले नाग ने डस लिया था |एक तरफ़ तो बत्तीस साल की कम उम्र में पति की अकाल मृत्यु का गम| ऊपर से पंचायत का तुगलकी फ़रमान, या तो समाज की प्रथा के मुताबिक , इसका देवर इसके ऊपर चादर डाल कर इसे पत्नी बना ले, नहीं तो इसका  सिर  मुड़वा कर इसको एक सूती सफ़ेद धोती में घर की बाहरी  कोठरी में भेज दो| वहीं रहना होगा |घर में और खासकर रसोई में घुसना सख्त मना"।
"जीजी, तुम्हारा देवर तो बहुत छोटा था ना"?
"हाँ, मेरी शादी के समय तो आठ साल का था। मैंने तो उसके सारे काम किये थे । नहलाना,धुलाना,कपड़े पहनाना, स्कूल भेजना |कई बार तो उसे गोद में बैठा कर खिलाती भी थी"।
"फिर आप कैसे राज़ी हो गयीं उससे शादी को"?
"मेरी रज़ामंदी तो किसी ने पूछी ही नहीं"।
"फिर"?
"फिर क्या, मुझसे  पहले तो बबलुआ ने ही विरोध कर दिया। भरी पंचायत में रोने लगा कि जिस औरत ने मुझे माँ का प्यार दिया, उसे मैं किस मुँह से पत्नी बना लूँ और वहीं पास में ही कुएं में कूद गया"।
"अरे बाप रे"।
"गाँव वालों ने बड़ी मुश्किल से बाहर निकाला"।
“फिर क्या हुआ"?
"जब पंचायत ने  मेरे लिये विधवा की तरह रहने के नियम  गिनाये तो फिर बौखला गया| बोला,यह तो अत्याचार है। पंचायत ने कहा कि इससे बचाना है तो उढ़ा दे चादर"।
"और उसने आपको चादर उढ़ा दी"?
"अरे चंपा, राम जाने क्या हुआ| हम तो बेहोश पड़े थे |यह तो बबलुआ ने  ना जाने क्या सोचा होगा जो यह सब संभव हुआ"।
"जीजी, अब तो वह तुम्हारा पति है, अब भी बबलुआ बोलती हो"।
"वह भी तो हमको अभी भी भौजी ही बुलाता है"।
"क्या बात कर रही हो जीजी"?
"हाँ, सच में"।
"पर ऐसा क्यों"?
"उसने मेरे आगे शर्त रखी थी कि भौजी हम केवल समाज और पंचायत के दबाव में यह सब किये  हैं।बाकी हमारा और आपका रिश्ता वही रहेगा"।
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(23). आ० वसुधा गाडगिल जी.
इम्तहान

 कमल और पवन  स्कूल से लौटकर, खाना खाकर, खेलने  निकल गये। उनके लौटने पर माँ ने डाँट लगाई-
" इम्तहान सर पर है और तुम दोनों को इतना खेलना कूदना सूझ रहा है?"
"माफ कर दो माँ!"
"इम्तहान में पास नही हुए तो ध्यान रखना। इतनी पिटाई करुंगी कि दिन में तारे दिखेंगे... समझे...?"
माँ की डाँट पडते ही दोनों पढ़ने बैठ गये।तभी विजय की माँ ने इन दोनों की शिकायत की,
"जरा देखाकर बच्चे कहाँ जाते है? क्या खेलते है?तेरे बच्चे बिगड रहे हैं गोमती, चल मेरे साथ ! पता लगाते हैं।"
" हाँ, हाँ..चलो " कहते हुए बच्चों की माँ  दरवाज़ा सटाकर विजय की माँ के साथ निकल गयी।
"सुन... माँ गयी है!अब तो सच्ची बात पता पड जायेगी!"
कमल , पवन के कान में फुसफुसाया
" चल-चल दौडकर पहुंचते हैं ।"किताबें रख दोनों पिछली गली से दौड पडे। बच्चों की माताओ ने देखा कि कुछ बच्चे गढ्ढों के अंदर घुसे गेती से खच्च -खच्च कर मिट्टी खोद रहे थे ,कुछ बच्चे मिट्टी की मोटी मुंडेर बना रहे थे। यह देख कर दोनों चौंक गयी।
" ये क्या कर रहे हो तुम सब ?"
सारे बच्चे सहमे से खडे हो गये।कमल और पवन माँ का पल्लू पकडते हुए बोले
"डांटोगी तो नही? इम्तहान देते समय पीने को पानी नही मिलता, बहुत तकलीफ होती है माँ..।हम बडा सा गड्डा बना रहे हैं।पानी बरसेगा तो इसमें इकठ्ठा हो जायेगा।सबको पानी मिलेगा। "
" ये दिमाग किसका चला?"
"माँ,स्कूल में शहर से विज्ञान शिक्षक आये थे।उन्होने पानी को रोकने का  तरीका बताया जिससे पानी की कमी न हो।मैने वह तरीका पवन को बताया, फिर हमने सारे दोस्तों को.." कमल बालसुलभ भाव से बोल पडा।
"  हमने सोचा, सारे दोस्त ले आयेंगे,पानी जमीन पर..अब मारोगी तो नहीं ?"
माँ की आँखें ममता से गीली हो गयी थी।वह प्यार  बोली,
" अब कभी नही मारुंगी... मेरे बेटे तुम , फरिश्ते हो!"

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(24). आ० अन्नपूर्ण बाजपेई जी.
 आग्रह - लघु कथा
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मनमोहन जी अपनी धुन में चलते जा रहे थे । एक रोबोट की भांति , आंखे शून्य को ताकती हुयी । अचानक किसी चीज से टकराए और धड़ाम से गिर पड़े ।  गिर कर माथा फट गया था उनका  , और रक्त की धारा बह निकली । तब जाकर होश आया कि वे कहाँ चल रहे थे और अपने घर से कितनी दूर निकल आए है । वही पर धम्म से बैठ गए और सोचने लगे , " क्या क़ुसूर था मेरा ? केवल यही न कि मैं सबको एक साथ देखना चाहता था । सबके साथ रहना चाहता था । और गले में पड़े अङ्गौचे से अपना मुंह पोछने लगे । खून रिसना अभी भी जारी था ।

उनके कानों में बेटे शब्द पिघले  सीसे  की तरह उतर रहे थे , " अब आप अपना कोई ठौर ठिकाना ढूंढ लीजिये , हम आपको कब तक पालते रहेंगे ?" सोचते सोचते आंखे बह चली और दिमाग सुन्न होने लगा । हृदय पर लगी चोट , सिर की चोट से कहीं ज्यादा गहरी थी ।

" देख रही हो वसुधा ! जब से तुम गईं , मैंने इन बच्चों को माँ बन कर पाला । और आज इनहोने मुझे मेरी असली जगह बता दी । इनके प्यार में अंधे होकर मैंने अपनी सारी संपत्ति उनके नाम कर दी । लेकिन ये नाकारा औलादें ।" और फिर से फूट-फूट कर रो पड़े ।
उनको वहाँ इस तरह बैठे काफी समय हो गया । दिन भी झुकने लगा था । अचानक एक जोड़ी नन्हें हाथ उनको गालों पर सूख गए आंसुओं को पोछने की नाकाम सी कोशिश करने लगे । उन्होने अपना सिर उठाया । देखा एक छोटा सा बच्चा उनके कंधों पर झुका हुआ है । उनसे नजर मिलते ही मुस्कुराया , बोला " तुम क्यों लो लहे हो बाबा  ? क्या तुम्हाली मम्मी ने माला है , लोटी नई खायी क्या ?? चलो मेले घल माँ तुमको लोटी खिला देगी । " और अधिकार पूर्वक  हाथ  पकड़ कर घसीटते हुये अपने घर ले चला । उसके  इतने भोले आग्रह को टाल न सके मनमोहन जी । कुछ देर को ही सही उनका दुःख काफ़ुर हो गया था ।

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(इस बार कोई भी रचना निरस्त नही की गई है)

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सर जी धन्य है आप| त्वरित  संकलन आपको कोटि कोटि नमन| हार्दिक बधाई आदरणीय इस सफल आयोजन के लिए|  सादर|

हार्दिक आभार मोहतरमा

सादर हार्दिक बधाई और आभार गोष्ठी के सफल संचालन और संकलन के लिए आदरणीय मंच संचालक महोदय जी। मेरी रचना को स्थापित करने और हौसला अफ़ज़ाई के लिए आप सभी को बहुत-बहुत शुक्रिया। पता चला फ़रिश्ते कितने तरह के होते हैं हमारे आसपास । सभी सहभागी रचनाकारों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

इस आयजन की सफलता में आपका भी बहुत बड़ा हाथ है भाई उस्मानी जी, हार्दिक आभार.

आप सभी के प्रोत्साहन के नतीजतन ही हमारी सक्रियता संभव हो पाती है। सादर।

लघुकथा गोष्ठी के एक और सफल आयोजन और त्वरित संकलन की हार्दिक बधाई आदरणीय सर. साथ ही, सभी रचनाकारों को भी ढेर सारी बधाई. शीघ्र ही रचना का संशोधित रूप प्रस्तुत करता हूँ. एक बार पुनः बधाई. सादर.

आदरणीय मंच संचालक महोदय क्रमांक दो पर कृपया मेरी रचना की पहली पंक्ति में अधोलिखित अनुसार सबसे सही परिवर्तन कर दीजिए।:

//"यह पीढ़ी तो मोबाइलों और लेपटॉप्स पर ऐसे भिड़ी रहती है, जैसे कि जन्नत की सैर कर रहे हों!"//

"यह पीढ़ी तो मोबाइलों और लेपटॉप्स पर ऐसे भिड़ी रहती है, जैसे कि जन्नत की सैर कर रही हो!"


"यह पीढ़ी तो मोबाइलों और लेपटॉप्स पर ऐसे भिड़ी रहती है, जैसे कि ये सब उसे जन्नत की सैर करा रहे हों!"
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी आदाब,
लघुकथा गोष्ठी अंक 31 के सफल संचालन,त्वरित निरपेक्ष भाव की टिप्पणियों के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ ।
.मेरी लघुकथा म
"कलयुग में कुछ संशोधन करने का कष्ट करें:-
(1) "दुभर" के स्थान पर "दूभर" कर दें (2)"संस्कृति" शब्द को हटा दें । सादर ।
एक और सफल गोष्ठी व त्वरित संकलन के लिये हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर जी
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,लघुकथा गोष्ठी अंक 31बहुत सफ़ल आयोजन रहा,जो आपके बहतरीन संचालन की बदौलत मुमकिन हो सका, और त्वरित संक्लन तो आपकी बहुत बड़ी ख़ूबी है ही,इस आयोजन की सफ़लता और त्वरित संक्लन के लिए आपको दिल से मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
आदरणीय योगराज सर जी लघुकथा गोष्ठी के सफल आयोजन के लिए बहुत २ बधाई ,मेरी लघुकथा को संकलन में शामिल करने के लिए बहुत २धन्यवाद ,सादर
आदरणीय सर निवेदन है कि मेरी लघुकथा नीयत में “डोर बेल बजने पर नीना ने सोचा इस समय कौन होगा “की जगह “ डोर बेल बजने पर नीना बुदबुदाई इस समय कौन होगा ,”कर दीजिए ।सादर

आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी, ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक- ३१ के सफ़ल आयोजन,त्वरित संकलन और संपादन हेतु हार्दिक बधाई एवम शुभ कामनांयें।

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