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ओबीओ, लखनऊ-चैप्टर की साहित्य-संध्या माह सितम्बर, 2017 – एक प्रतिवेदन -डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव

ओबीओ, लखनऊ-चैप्टर की साहित्य-संध्या माह सितम्बर, 2017 – एक प्रतिवेदन -डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव शारदीय नवरात्रि का चौथा दिन. माता कुष्मांडा का आभा-मंडल जिनकी हँसी मात्र से सृष्टि की रचना हुयी, ऐसा माना जाता है. माह सितम्बर 2017 का अंतिम रविवार, दिनांक 24-09-2017 स्थान – MDH 5/1, सेक्टर H, जानकीपुरम, कवयित्री सुश्री आभा खरे का आवास. ओबीओ लखनऊ-चैप्टर और अमर भारती साहित्य एवं संस्कृति संस्थान द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित एक यादगार साहित्य-संध्या, जिसकी अध्यक्षता डॉ० निर्मला सिंह ’निर्मल’ ने की. कार्यक्रम का सञ्चालन सुश्री आभा खरे ने किया . कविता पाठ से पूर्व सभी साहित्य प्रेमियों को वरिष्ठ साहित्यकार कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ जी जो कानपुर साहित्य जगत की एक चलती-फिरती संस्था के मानिंद थे और ओबीओ लखनऊ चैप्टर के परम हितैषी रहे, के आकस्मिक निधन (19 सितम्बर 2017 को) के समाचार से अवगत कराया गया. उनकी आत्मा की शांति के लिए सभी उपस्थित सुधी जनो ने मौन-प्रार्थना की. तदनंतर संचालिका सुश्री आभा खरे ने काव्य पाठ के लिए सर्व प्रथम कवयित्री निवेदिता सिंह को आमंत्रित किया जिन्होंने आज के सर्वाधिक ज्वलंत विषय ‘नारी विमर्श’ का आलम्बन लेकर अपनी कविता ‘औरतें सड़क पर हैं‘ की प्रस्तुति की, जिसका निदर्शन निम्नवत है – अन्धेरा होने को है औरतें आनन-फानन में काम ख़त्म कर लौट रही हैं वापस अपने पिंजरे में देवी, दुर्गा, लक्ष्मी का टैग ढोते-ढोते दुखने लगे हैं उनके कंधे लोगों की ललचाई नजरों से खुद को बचाते-बचाते भूल बैठी हैं अपनी ताकत और पहचान डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी ने सड़क हादसों के पीछे वाहन-चालकों की संकट ग्रस्त ज़िंदगी और उनकी मानसिक स्थिति को जिम्मेदार ठहराते हुए दुर्घटनाओं की नियति को सर्वथा नए तरीके से परिभाषित किया. कवि कहता है – ज़िंदगी के लिए ज़िंदगी ढोते हुए दो आक्रोश से भरी ज़िंदगियों ने खींच दी खड़ी पाई कुछ देर की चुप्पी कुछ देर का शोर आँसुओं का कुहासा मुआवजे का पासा फिर वही दौड़ पस्त हो गयी है ज़िंदगी ज़िंदगी ढूंढ़ते हुए भगवान भी अब सन्नाटे में है. कवयित्री सुश्री अलका त्रिपाठी ‘विजय’ की कविता में ‘मान’ अधिक है या ‘उपालंभ’ और वे ‘खंडिता’ नायिका है या ‘प्रोषितपतिका’ इसका अनुमान उनकी कविता में करने की काफी गुंजाईश दिखती है – मिले न तुम्हारी नज़र के इशारे यहीं सो रहेंगे सदा मौन धारे ओज के प्रखर कवि मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ की वाणी का उत्साह उनकी कविता को वीर रसात्मक बनाता है . कविता की बानगी प्रस्तुत है – चिंतन सोया, बुद्धि अचंभित पागल मन कुछ कुछ घबराया मैंने जीवन पृष्ठ टटोले सब अतीत के पन्ने खोले फिर भी समझ न कुछ भी आया लगता सारा जग भरमाया कवयित्री विजय पुष्पम ने माता शारदे के प्रति अपने श्रद्धा के सुमन इस भाँति चढ़ाये- मातु खड़ी द्वार तेरे हाथ लेके लेखनी शब्द रच जाए कुछ वर मुझे अब दो . डॉ0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव ने हाल ही में महाकवि कालिदास कृत ‘मेघदूत’ काव्य का हिदी के ‘ककुभ’ छंद में काव्यानुवाद पूर्ण किया है. उन्होंने उसी अनुवाद के कुछ अंश सुनाये, जिसमें कालिदास की उर्वर कल्पना की सुगंध विद्यमान है – अहो प्रसंग एक अति रोचक याद अभी मुझको आया तुमसे कहने के हित इसको मुझे यक्ष ने बतलाया “मुझे गाढ़ आलिंगन में भर एक बार जब थी सोई और नींद में अकस्मात ही जाने क्यों थी तुम रोई सहसा जाग उठी तब मैंने पूछा प्रिय तुम रोई क्यों मंद हंसी के साथ प्रिये तब तुमने बतलाया था यों “ “हे कृतघ्न, मैंने था देखा एक दूसरी नारी को उसके संग प्रवृत्त रमण-रत अपने पति व्यभिचारी को” गज़लकार भूपेन्द्र सिंह ‘शून्य‘ ने एकाधिक सुन्दर गज़लें बा-तरन्नुम पेश कीं. इनकी एक गज़ल का मक्ता पेश-ए–खिदमत है - ज़िंदगी में किसी भी कोशिश का ‘शून्य’ हासिल सिफर नहीं होता. कवयित्री डॉ0 भारती सिंह की दृष्टि हिंसा की अनश्वरता पर है. उनका आक्रोश शब्दों का बाँध इस प्रकार तोड़ता है – हिंसा की भाषा बड़ी सख्त, बड़ी भारी और ऐंठी हुयी होती है मृत शरीरों की तरह फिर भी कोई इसे न दफनाता है न जलाता है संचालिका सुश्री आभा खरे ने दर्द और हँसी के बीच बिगड़े संतुलन पर तंज कसते हुए कहा- हो गयी जबसे हँसी महंगी जहाँ में दर्द के बाजार में रौनक लगी है. हर खुशी गमगीन सी फिरती यहाँ पर कौन जाने आग किस दिल में लगी है. कवयित्री निवेदिता श्रीवास्तव की कविता एक पहेली की तरह थी जिसे बूझना भी किसी चुनौती से कम नहीं था – प्यारी मैं सबकी हूँ भारत माँ मेरी हिन्दी रानी प्यारी उपन्यासकार के रूप में ख्यात डॉ० अशोक शर्मा ने रीतिकाल के किसी कवि की इन पंक्तियों की याद ताजा कर दी –‘सखि तुम, सखि मैं, हम वे ही रहे पै जिया कछु के कछु ह्वे गए हैं’. कवि की कविता में यह भावना कुछ इस तरह व्यक्त हुयी है . रास्ते भी आप भी हम भी वही हैं सब वही केवल समय बदला हुआ है प्रख्यात कवयित्री संध्या सिंह ने अपनी कविता में शंका और विश्वास के अंतर्द्वंद्व को बड़ी खूबी से उकेरा है. जिसका प्रमाणिक दस्तावेज यह गीत है - शंकाओं को बाँध गले में झूल गया विश्वास इधर बर्फ है उधर आप हैं बीच खड़ी है प्यास कार्यक्रम की अध्यक्षा डॉ० निर्मला सिंह ‘निर्मल‘ ने सम–सामयिक सन्दर्भों पर कुछ दोहे सुनाये और सभी उपस्थित साहित्य-प्रेमियों की रचनाओं पर अपनी सम्मति दी. उनकी कविता के कुछ अंश यहाँ पर प्रस्तुत हैं – लक्ष्मी है बड़ी चंचला सब दिन रहे न साथ भरी तिजोरी खाली होवे बीत न पाए रात काव्य पाठ के बाद सभी ने सुश्री आभा खरे के स्नेहिल आतिथ्य का भरपूर लुत्फ़ उठाया. जो व्रत थे उनके लिए भी फलाहार की उत्तम व्यवस्था थी. मन जो था छका सो छका ही रहा लो उदर भी छका छकने की घड़ी छकने की छकाशा हुयी जो खरी सुधि काहे को घर जाने की पड़ी छकि पूरी की पूरी करौ अब लौं अभिलाषा न दूजी है छकि से बड़ी आतिथ्य ये आभा खरे की सखे ! जो गई लगि है छकने की झड़ी (सद्य् रचित ) (अप्रकाशित/ मौलिक)

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