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"ओ बी ओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक-39 की सभी स्वीकृत रचनाएँ

(१). अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
(चौपाई)


खेलते खतरों से जहाँ है। तन की चिन्ता वहाँ कहाँ है॥
करतब रस्सी पर दिखलायें। कठिन काम को सरल बनायें॥
 
जोखिम भरा है काम इनका। विश्वास अटल, करते मन का॥
और किसी से रखें न मतलब। जब तक दम, दिखलाते करतब॥

संतुलन एक चक्के पर है। जोश, लगन है, फिर क्या डर है॥
खतरों से जीवन कब खाली। खुश होते, जब बजती ताली॥

बहुरंगी परिधान पहनकर। खूब हँसाते. जोकर बनकर॥
सर्कस का हर शो सिखलाये। मस्त रहें, ग़म पास न आये॥

जग सर्कस, हर जीव अनाड़ी। ऊपर है बस एक खिलाड़ी॥
उछल- कूद सब की सहता है। हर युग में सर्कस चलता है॥

पुछल्ला.......

रिंग मास्टर कहलाता है। पर नज़र नहीं वो आता है॥
बात इशारों में करता है। जो न समझे, वो भटकता है॥

(संशोधित) 
.......................................................................
(2) श्री सत्यनारायण सिंह जी
(१).
मस्ती जिसकी लगती प्यारी,
वा करतब पर जग बलिहारी,    
हुनर तीर भरे अंग तर्कस,
क्यों सखि साजन ? ना सखि सर्कस !
 
घूमे गाँव शहर हर कस्बा,  
सिर चढ़ बोले जादू जिसका,
डोले पहिने सुन्दर जरकस,
क्यों सखि साजन ? ना सखि सर्कस !

अजब गजब करतूत दिखाये,
ओठों पर मुस्कान खिलाये,
बात कहे वह कभी ना कर्कस,
क्यों सखि साजन ? ना सखि सर्कस !  

(२)
छन्न पकैया:

छन्न पकैया  छन्न पकैया, गोल टैंट है न्यारा|
हुआ रोशनी से यह जगमग, लगता मन को प्यारा|१|

छन्न पकैया  छन्न पकैया, हर्षित बूढ़े बच्चे|
जादू का यह गोल पिटारा, खेल दिखाता सच्चे|२|

छन्न पकैया  छन्न पकैया, कहे तार की कसरत |    
मेल सधे जब तन मन का तो,  पूरी होती हसरत|३|

छन्न पकैया  छन्न पकैया, चकित कभी मन विस्मित|
अजब दुपहिया गजब विदूषक, देख हुआ मन सुस्मित|४|

छन्न पकैया  छन्न पकैया, सुन्दर दृश्य विहंगम|
मस्ती करतब और हुनर का, सर्कस अनुपम संगम|५|
----------------------------------------------------------------
(3) श्री लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी
(१). चौपाई

खतरों से जो खेला करते, तरह तरह के करतब करते |
रबर सरिका तन है जिनका, सुन्दर तन लगता है उनका ||
 
करते काम पेट भरने को, मरने की फिर परवाह किसको |
नाच नचाता जो भी उनको, कभी न दिखता है वह हमको | |
 
चीते से भी नाच नचाते,  हम सबको है खूब हंसाते |
बावन अंगुल जोकर आते, बच्चों में वे खुशिया लाते ||
 
गोले में गाडी  चलवाए,  कुछ लोगों का दिल घबराये |
मन में कुछ को जोश दिलाए, जीवन का ये सार बताए ||
 
सर्कस अब खतरे में देखो, सब कुछ अब टीवी पर देखो |
जीवन खेल बताता सबको,अंतिम साँसे गिनता देखो ||


(२).   रोला छंद

तरह तरह के खेल, हमें सर्कस दिखलाए  
मिले सीख अनमोल, संग रहना सिखलाए
सर्कस में सब साथ, निभे बिन टूटे यारी
खेले कूदे संग,  करे सब मिल  तैयारी

अभिनय करे अनेक, कभी न द्वन्द में उलझे
जिसे मिले जो काम, बंदगी सत की समझे
सबका अपना कर्म,  रहे न ह्रदय से दुखिया
सर्कस का यह खेल, चले जब तक है दुनिया |
-------------------------------------------------------------------
(4) श्री गिरिराज भंडारी जी
(१). गीतिका --

संतुलन है एक  जीवन खेल ये सिखला रहा
रस्सियों पर देख करतब कर हमें बतला रहा
सिर्फ ताली ही बजा कर लौट जाना घर नहीं
ज़िन्दगी हो जानना इससे बड़ा अवसर  नहीं

एक चक्का है  बड़ा तो एक  छोटा  देखिये
कौन खोटा है  खरा है भूल से मत सोचिये
सरकसों का ये तमाशा भी हमें समझा रहा 
किस तरह छोटे बड़े का संग हो दिखला रहा

ठीक है, ये रंग जीवन के न सारे भर सकें
दूर भी सारे दुखों को ये न तुम से कर सकें
कुछ पलों को तुम भुला पाये दुखों को कम नही
देख लो तुम आँख सबकी इन पलों में नम नहीं


(२)
छ्न्नपकैया छ्न्नपकैया – छंद

छ्न्नपकैया छ्न्नपकैया , सर्कस भी है शाला
देखो अभ्यासी लोगों ने , क्या क्या है कर डाला

छ्न्नपकैया छ्न्नपकैया, हाथी , घोड़ा , बन्दर
सब करतब के अभ्यासी हैं , इस सर्कस के अन्दर

छ्न्नपकैया छ्न्नपकैया ,खुद को कितना साधा
रस्सी उपर चल जानें में, तुम्हें दिखी क्या बाधा ?

छ्न्नपकैया छ्न्नपकैया ,बेढब साइकिल वाला
उसे चलाने की खातिर भी , उसने ढंग निकाला

छ्न्नपकैया छ्न्नपकैया , अपना दर्द भुलाये 
कैसे संभव है हँस पाना , जोकर हमे सिखाये
----------------------------------------------------------
(5) श्री अशोक कुमार रक्ताले जी

(१). रोला छंद.

कई दिखाता खेल, नाम है जिसका जोकर,
हमें हँसाता खूब, नित्य मन ही मन रोकर,
दर्शक करते वाह, मजा जब उनको आता,
तब जोकर कुछ और, नए करतब दिखलाता ||

कुछ हैरतअंगेज, दृश्य व्याकुल करते हैं,
पर सर्कस के खेल, यही तो मन हरते हैं,
ताली पाते खूब, नए नित खेल दिखाकर,
बाजीगर से और, अधिक पर भाता जोकर ||

(२) चौपाई छंद.

गोल धरा पर जीवन चक्का | देख रहे सब हक्का बक्का ||
पल-पल यह नव रूप दिखाए | मानव जीवन सबको भाए ||

बचपन है जोकर सी मस्ती | दौड़ो भागो बस्ती-बस्ती ||
नए-नए नित रूप सजाओ | माँ बापू को नित्य सताओ ||

युवा अवस्था धागा कच्चा | लक्ष्य बनाओ सीधा सच्चा ||
जीवन जाने कैसे राँधे | भार धरे जब दोनों काँधे ||

वृद्धावस्था पूरी सरकस | करवाती है सारे करतब ||
चले खेल जब दिन राती का | वायु संग दीपक बाती का ||

रंग-बिरंगा वेश सुहाए | हँसता जोकर सबको भाए ||
मुख पर चुपड़े झूठी लाली | चलो बजाएँ सारे ताली ||
---------------------------------------------------------------
(6) आ० रमेश कुमार चौहान जी

(१).

छन्न पकैया छन्न पकैया, बस्ती सर्कस आया ।
मन में विस्मय पैदा करता, जोश उमंग जगाया ।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, चतुर सजीब खिलाड़ी ।
इक पहिये पर चलता वह तो, कैसे कहें अनाड़ी ।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, कैसे खेल दिखाये ।
करतब मायाजाल लगें है, बरबस हमें रिझाये ।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, रस्सी पथ पग धारे ।
करे निरूपण तनमन योगा, प्राण खेल पर वारे ।।

छन्न पकैया छन्न पकैया, नट हमसब जग वासी ।
ईश्वर बड़े खिलाड़ी भैया,  खेले जो चौरासी ।।

(संशोधित)


(२) गीतिका छंद

खेल सर्कस का दिखाये, ले हथेली प्राण को ।
डोर पथ पर चल सके हैं, संतुलित कर ध्यान जो ।।
एक पहिये का तमाशा, जो दिखाता आज है ।
साधना साधे सफलतम, पूर्ण करता काज है ।।

काम जोखिम से भरा यह, पेट खातिर वह करे ।
अंर्तमन दुख को छुपा कर, हर्ष सबके मन भरे ।।
लोग सब ताली बजाते, देख उनके दांव को ।
आवरण देखे सभी तो, देख पाये ना घाव को ।।

ये जगत भी एक सर्कस, लोग करतबबाज हैं ।
‘जूझते जो उलझनो से, सृष्टि के सरताज हैं ।।
ध्येय पथ पर बढ़ चलो तुम, डोर जैसे नट चले।
दुख जगत का एक पहिया, तुम चलो इसके तले ।।
............................................................................................
(7) आ० राजेश कुमारी जी


(१). रोला छंद

सर्कस का संसार ,आज भी कायम देखो
अद्भुत कारोबार ,चक्र सा  चलता देखो
चलते फिरते गाँव ,शहर कस्बों में जाते
विस्मित होते लोग ,नये करतब दिखलाते

जोखिम में हैं जान ,नहीं पर चिंता इनको   
कहाँ करें परवाह ,पेट भरना है जिनको
कलाकार करतार ,करे इनकी  रखवाली
करती ऊर्जावान ,इन्हें लोगों की ताली

नित्य करें अभ्यास ,सभी मिलजुल कर रहते
हार मिले तो मार ,जानवर भी हैं सहते
चटख रंग परिधान ,पहनते हैं ये सारे
चका चौंध के बीच ,लगें आखों को प्यारे

(२). तीन रोले

चलें डोर पर चार,हवा में ये लहराते|
हो ना हो विशवास ,बड़े करतब कर जाते||  
तन मन का अभ्यास, यंत्र वत इन्हें बनाता|
राह सभी आसान ,पाठ बस यही सिखाता||

गज़ब संतुलन खेल ,रचाता देखो पहिया|
रोटी की दरकार, कराती ता ता थैय्या||
अपने गम को भूल ,हँसाता खुशियाँ बोकर|
सर्कस की है जान ,मस्त रंगीला जोकर||

जिन्दा है प्राचीन ,कला जो ये हैरत की|
इसमें है आयुष्य ,पुरा संस्कृति भारत की||
सर्कस के ये खेल ,हुए अब देखो सीमित|
जर्मन औ यूरोप ,इन्हें बस रखते जीवित||
--------------------------------------------------------------
(8) आ० डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी

(१). गीतिका

देख लो  यह भव्य  सर्कस साज है कैसा सजा I
मंडप  तना अनुपम टंगा  नील  मानो नीरजा I
इन्द्रधनुषी वर्ण  चहुँ  दिशि झूम कर छाये हुए I
या  सुमन-शर काम  के  सर्वत्र छितराये  हुए I

त्रिनट है कि त्रिदेव पर यह संतुलन कौतुक बना I
नभ महा के शून्य पर यह अंड-त्रय अद्भुत तना I
चक्र  वाहन  पर  विदूषक  दर्प से जो आ रहा I
संतुलन  बिगड़े  न कोई  ह्रदय  में घबरा रहा I

लोग  घबराते  झिझकते  और  डरते  है जहाँ I
हा ! मनोरंजन  सभी उस बिंदु  पर करते यहाँ I
यह यहाँ नस तोड़कर  जी-जान  पर जो खेलते I
वह  कदाचित पेट  की पापी  व्यथा को झेलते I   

(२) सार छंद ( ललित छंद  )

एक  दृष्टि से यदि  देखें  तो  जीवन  भी  सर्कस है I
लोग कुलान्चे  भी  भरते है जिसका जितना वश है I

नियति-नटी के हर इन्गिति पर पद संचालन होता I
पल-पल हमें  हंसाती  है वह  पल-पल  मानव रोता I

सब अपना प्रिय  खेल दिखाते  जब आती है बारी I
जीवन भर  होती  रहती  है  प्रति  पल  की तैयारी I

जब  जीवन-सर्कस  में आते  कितना उत्सव होता I
सोलह-सोलह   संस्कारो का  अद्भुत  खेला  होता I

और  अंत में   सभी  भूमिका  जब  पूरी  हो जाती I
इस सर्कस के निर्देशक की दृष्टि कुटिल  हो जाती I

भरी हुयी  जो मुट्ठी  थी वह  भी  खाली कर देता I
हाथ  पकड़कर  फिर सर्कस से वह बाहर कर देता I  

--------------------------------------------------------------------
(9). आ० सचिन देव जी
छन्न पकैया-

छन्न पकैया छन्न पकैया,   गजब संतुलन साधा
सारे आकर गिरें धरा पर, कम हो या फिर ज्यादा

छन्न पकैया छन्न पकैया,  चमत्कार है भैय्या
दो पैरों से चला रहा है ,  साइकल एक पहिया

छन्न पकैया छन्न पकैया, नित ये जान लड़ाते
रोजी रोटी की खातिर ये,   करतब  नए दिखाते

छन्न पकैया छन्न पकैया,  बच्चे शोर मचाते
देख देख कर कला अनोखी, उँगली दांत दबाते

छन्न पकैया छन्न पकैया,    सरकस देखो जाओ
मिटने ना दो कला निराली  , मिलकर इसे बचाओ

( संशोधित )

------------------------------------------------------------
(10) आ० कल्पना रामानी जी
सार छंद

छन्न पकैया, छन्न पकैया, भरा हुआ है मेला।
कितना है रोमांचक देखो, यह सर्कस का खेला ।

छन्न पकैया, छन्न पकैया, ये भोले से मुखड़े। 
खुशियाँ बाँट छिपाते अपने, हिय में दारुण दुखड़े।

छन्न पकैया, छन्न पकैया, आहा! गजब  तमाशा।
दौड़ रही रस्सी के पुल पर, एक असीमित आशा।

छन्न पकैया, छन्न पकैया, जग इससे अनजाना।
आज यहाँ, कल कहाँ मिलेगा, इनको ठौर ठिकाना।

छन्न पकैया, छन्न पकैया, स्वाँग धरे ये जोकर।
जन-जन को तो हँसा रहे हैं, अपने मन में रोकर।
--------------------------------------------------------------
(11). आ० वेदिका जी
गीतिका

खेल कह लो या कि जीवन एक ही सर्कस हुआ
घूमते इस चक्र पर कह दो किसी का बस हुआ
दिल दहल जाता हमारा झूलते जन देखते
मन किया करता हमारा खेल हम यह सीखते

शुभ्र जीवन संतुलन है धैर्य जीवन सार है
जो कहीं बिगड़ा समन्वय शेष फिर निस्सार है
एक कद से निम्न हो लेकिन यहाँ वह वीर है
है हँसाता  देखिये उर मे छुपाए पीर है

यह कला से पूर लेकिन आज यह दम तोड़ता
एक बीते काल मे था यह सभी को जोड़ता
मौन हम अपलक कभी हम खिलखिला के हँस रहे
जीविका के हेतु से ये उदर अपने कस रहे
-----------------------------------------------------
12. आ० अरुण कुमार निगम जी

रोला छन्द

थम - थम जाये साँस , संतुलन देख खेल में
रत्ती - भर  भी  चूक , नहीं  है  ताल - मेल में
सरकस का हर खेल , भेद सुख के सिखलाये
यही संतुलन मन्त्र , सफल  जीवन कर जाये

तम्बू  है  आकाश , क्षितिज  घेरे में  सीमित
सरकस का परिवार, जगत को करे अचंभित
बाँटें  खुशियाँ  लाख, स्वयं  सह कर हर पीड़ा
दाव  लगे   हैं  प्राण , लगे  दर्शक  को  क्रीड़ा

परम्परागत  खेल , अजूबे  मंच कलायें
शनैः शनैः  हैं लुप्त , हो रहीं  कई विधायें
संस्कृति से मुख मोड़ , प्रगति है किस दिश जाती
रखिये इन्हें सहेज , यही हैं अपनी थाती
---------------------------------------------------------

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Replies to This Discussion

श्रम साध्य कर्म को शीघ्रता से सम्पन्न किया।
अनन्य शुभकामना प्रेषित है आदरणीय प्रधान सम्पादक जी!
सादर!!

वाह ,अद्भुत !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

छन्न पकैया छन्न पकैया, सुपर-फास्ट है भाया

ग्यारह सन्तावन  होते  ही ,योगराज की माया

छन्न पकैया छन्न पकैया,तीन मिनट ही पहले

ओबीओ पर हुए संकलित,स्वीकृत छन्द रुपहले

***************************************************

छन्न पकैया छन्न पकैया, चूक हुई कल भारी

सार छन्द पढ़ने से छूटा , “रामानी जी” सॉरी

छन्न पकैया छन्न पकैया,  हर आयाम उभारे

स्वाँग हँसी सब तौर ठिकाने ,हिय दारुण दुख सारे.........(बधाई आदरणीया कल्पना रामानी जी )

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी, 

इस श्रम साध्य कार्य की त्वरित प्रस्तुति पर हार्दिक बधाइयाँ

आदरनीय योगराज भाई , मंच पर आपकी सक्रियता के लिये आपको दिली धन्यवाद , साधुवाद ॥ सफल आयोजन के लिये आपको बधाइयाँ । त्वरित संकलन पढ़वाने के लिये आपका बहुत बहुत आभार ॥

सुप्रभात, सभी छंदों को एक साथ फिर से पढ़ कर मन आनंदित हो गया. सफल आयोजन व सुंदर संकलन हेतु आदरणीय प्रधान सम्पादक जी एवम् परम आ. सौरभ जी को हार्दिक बधाई प्रेषित करता हूँ। प्रस्तुति में  निम्नवत संशोधन कृपया कर दीजियेगा.

 अजब गजब करतब दिखलाये,
ओठों पर मुस्कान खिलाये,
बात कहे वह कभी ना कर्कस,
क्यों सखि साजन ? ना सखि सर्कस !  

सादर .....

रिकॉर्ड बना दिया ! अद्भुत *****

 

लाइव महोत्सव की समाप्ति से ठीक 3 मिनिट पहले ही सभी रचनाओं का संकलन कर उपलब्ध कराना प्रधान सम्पादक

श्री योगराज प्रभाकर जी की श्रम साध्य और गजब कीफुर्तीली सक्रियता का प्रमाण है | प्रथम बार ही मेरी चौपाई एवं रोले छंद

की रचना को विद्वजनों की सराहना से जो उत्साहवर्धन हुआ है, वह मै शब्दों में बता नहीं सकता | इस उत्सव को पूर्ण समय

देकर सफल बनाने में प्रधान सम्पादक आदरणीय योगराज प्रभाकर जी अतिशय बधाई के पात्र है |

रात्री को मै दूसरी रचना- रोला छंद पर विद्वजनों की प्रतिक्रियाओं के प्रति आभार प्रकट नहीं कर पाया था | सर्व श्री योगराज भाई

जी, डॉ प्राची सिंह जी, श्री अरुण कुमार निगम जी, आद राजेश कुमारी जी, श्री अशोक रक्ताले जी, श्री सत्यनारायण सिंह जी,

श्री रमेश चौहान जी, कल्पना रामानी जी और डॉ गोपाल नारायण जी सहित सभी को  उत्साहवर्धन करने के लिए हार्दिक आभार |

उत्सव की सफलता के लिए सभी सुधि पाठकों को बधाईयाँ

श्रम साध्य कार्य को बिजली सी चपलता से संपन्न करने के लिए. आदरणीय प्रधान सम्पादक जी का दिल से आभार. सादर. 

श्री योगराज प्रभाकर जी को ......... त्वरित संकलन पर

घोड़े को सरपट दौड़ाये ।  समय पूर्व मंज़िल पहुँचाये ॥

करतब से क्या कम है भाई । संकलन पर मेरी बधाई ॥

आदरणीय योगराजभाईसाहब,
सद्यः समाप्त ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव में आपकी संलग्नता तथा स्वीकृत रचनाओं के संकलन के प्रति आपकी तत्परता के प्रति आपका सादर आभारी हूँ.

इस बार, जैसा कि आयोजन के दौरान ही सूचित किया था, मैं कार्यालय के कार्यों में अपनी अति व्यस्तता तथा दौरे के कारण आवश्यक समय नहीं दे पाया. लेकिन सभी प्रतिभागी सदस्यों की रचनाओ को अब पढ़ते हुए यह अनुभव हो रहा है कि जिन सदस्यों ने अभ्यासकर्म किया है वे छ्न्दोबद्ध रचनाओं के प्रति न केवल आग्रही हैं बल्कि उनकी प्रस्तुतियों में आवश्यक सुधार भी दिखता है. यह एक शुभ संकेत है. इतना ही नहीं कई पाठक सदस्यों की गरिमामय उपस्थिति भी आयोजन की प्रगति के प्रति आश्वस्त करती है.
यह अवश्य है कि छन्द विधान पर आधारित रचनाओं के प्रति सभी तरह के रचनाकर्मियों का झुकाव नहीं बनता. दूसरे, रचनाकर्मी भी विशेष या कतिपय छन्दों में अधिक सहजता का अनुभव करते हैं. यह सारा कुछ छन्दोत्सव के आयोजन की सीमा को ही प्रगाढ़ करता है.
फिरभी, यह भी सत्य है, कि, इन सीमाओं को जानते हुए भी ओबीओ का मंच इन्हें लांघने का सार्थक प्रयास कर रहा है तथा शास्त्रीय छन्दों के विकास और प्रचार के कर्म में लगा हुआ है.

सभी प्रतिभागियों तथा पाठकों के प्रति हार्दिक शुभकामनाओं के साथ आपके प्रति सादर आभार अभिव्यक्त करता हूँ.
सादर

आयोजन की सभी रचनाओं का तवरित संकलन देख कर प्रसन्नता हुई|आ० योगराज जी की मेहनत से ये सब की रचनाओं का गुलदस्ता  इस पटल को महका रहा है |हार्दिक बधाई आ० योगराज जी| और एक बात सम्पूर्ण आयोजन में आ० योगराज जी की भागेदारी एक मिसाल है जिसके हम सभी शुक्रगुजार हैं|सभी रचनाकारों को भी हार्दिक बधाई |   

आदरणीय प्रधान सम्पादक महोदय,

इस त्वरित संकलन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...

गत सप्ताह पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में एक ट्रेनिंग में मैं बहुत व्यस्त थी..शनिवार की शाम वर्षा के कारण कुछ फील्ड विजिट स्थगित हो गयीं और छन्दोत्सव की सभी प्रविष्टियों को पढने का अवसर मुझे मिल पाया.. 

स्वतः दायित्व लेकर मंच के कार्यों को करना तो मंच की परिपाटी रही है... पर उससे भी चार कदम आगे ये आपसी तालमेल जिसमे कहने की आवश्यकता ही नहीं महसूस हो.....और कार्य निर्वहन इतने सुचारू रूप से हो जाते हैं...उसपर मन बहुत प्रसन्न है और आपकी इस संवेदनशीलता पर नत भी है. ऐसा प्रबंधन एक मिसाल है.... ऐसा कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

इस संकलन के लिए पुनः हार्दिक धन्यवाद आदरणीय 

सादर.

आदरणीय योगराज जी \

संकलन का अपना एक अलग महत्त्व है  i पर जैसी काव्यात्मक समीक्षा आपने सभी प्रस्तूतियो की संपन्न की वह स्तुत्य है i  सादर i

परम्परागत  खेल , अजूबे  मंच कलायें
शनैः शनैः  हैं लुप्त , हो रहीं  कई विधायें
संस्कृति से मुख मोड़ , प्रगति है किस दिश जाती
रखिये इन्हें सहेज , यही हैं अपनी थाती

संकलन का अंतिम बंद ....जैसे उपसंहार 

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