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ग़ज़ल - चरागाँ इक मुहब्बत का जला दो तुम

1222 1222 1222

चरागाँ इक मुहब्बत का जला दो तुम,

अभी उन्वान रिश्ते को नया दो तुम ।

फ़ना ही हो गये जो इश्क़ कर बैठे,

ज़हर है ये,ज़हर ही तो पिला दो तुम ।

हया कायम रहे,कब तक मुहब्बत में,

ज़रा पर्दा शराफत का उठा दो तुम ।

बहुत वीरान है,सदियों से दिल मेरा,

मकीं होकर यहाँ,कुछ गुल खिला दो तुम ।

हुआ अरसा हमें तुमसे मिले अब तो,

मिलो फिर से हमें वो सिलसिला दो तुम ।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on October 20, 2019 at 5:20pm

Bilkul Sir

Comment by Balram Dhakar on October 20, 2019 at 12:37am

जनाब प्रशांत जी, 

ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा है, मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं। 

आदरणीय समर सर की बातों पर गौर करें, ग़ज़ल और बेहतर हो सकेगी। 

सादर। 

Comment by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on October 19, 2019 at 4:44pm

बहुत बहुत धन्यवाद समर सर ।

प्रयास करता हूँ ।

Comment by Samar kabeer on October 19, 2019 at 2:28pm

जनाब प्रशांत दीक्षित 'सागर' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'चरागाँ इक मुहब्बत का जला दो तुम'

'चरागाँ' किया जाता है,होता है,इसके साथ जला दो कहना उचित नहीं,मिसरा बदलने का प्रयास करें ।

'ज़हर है ये,ज़हर ही तो पिला दो तुम'

इस मिसरे में सहीह शब्द "ज़ह्र" है,इसे 12 पर लेना उचित नहीं देखियेगा ।

Comment by प्रशांत दीक्षित 'प्रशांत' on October 18, 2019 at 5:32pm

बहुत बहुत धन्यवाद विमल शर्मा 'विमल' जी

Comment by विमल शर्मा 'विमल' on October 18, 2019 at 12:42pm
वाह वाह... बेहद खूबसूरत अल्फाजों से सजाया...बधाई।

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