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पूर्तिहीन संवाद

आकुलित असंवेदित भाव

अपाहिज हुई वह जो होती थी

स्नेह की अपेक्षित शाम

गई कहाँ वह ममतामयी प्रतीक्षातुर बाहें

दिशायों से आती तुम्हारे आने की आहट

ऊब गई है, उकता गई है कब से

नपुंसक दुखजनित अजनबी हुई आस्था

महिमामयी स्मृतियों के आस-पास

मटमैली रौशनी सुनसान गहरी उदास

फिर क्यूँ जोड़ती हैं हमें देहहीन परछाइयाँ                   

आसाधारण अपूर्ण प्रवाही दिशाहीन हवा-सी

कसकती बदनसीबी

भटकते तैरते-मिलते-टूटते बुलबुले

बेथाह डबडबाई सम्भावनाएँ

फिर भी क्यूँ और कैसे कुहुकती है

कोई छलती उमीद ....

शायद इसीलिए कि कई बार कहा था तुमने

तुम कभी बदलोगी नहीं

                    -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on September 12, 2019 at 6:33am

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई समर कबीर जी।

Comment by Samar kabeer on September 10, 2019 at 11:42am

प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह सुंदर और उम्द: रचना,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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