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221 2121 1221 212

मुद्दत के बाद आई है ख़ुश्बू सबा के साथ ।

बेशक़ बहार होगी मेरे हमनवा के साथ ।।

शायद मेरे सनम का वो इज़हारे इश्क था ।

यूँ ही नहीं झुकी थीं वो पलकें हया के साथ ।।

वह शख्स दे गया है मुझे बेवफ़ा का नाम ।

जो ख़ुद निभा सका न मुहब्बत वफ़ा के साथ ।।

माँगी मदत जरा सी तो लहज़े बदल गए ।

अब तक मिले जो लोग हमें मशविरा के साथ ।।

आँखों में साफ़ साफ़ सुनामी की है झलक।

कुछ तो ग़लत हुआ है तुम्हारी फ़ज़ा के साथ ।।

कुदरत सिखाए जो भी हुनर सीखिए हुजूऱ ।

जीतेंगे आप जंग मगर तज्रिबा के साथ ।।

आएगी एक दिन वो बुलाने के वास्ते ।

रिश्ता है जिंदगी का यकीनन क़ज़ा के साथ ।।

गर दोस्ती की राह पे चलना है दूर तक ।

मिलिए न रोज़ रोज़ यूँ शिक़वा गिला के साथ ।।

चेहरा बता रहा है तुम्हारी खुशी का राज़ ।

गुज़रेगा आज वक्त कहीँ दिलरुबा के साथ ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on July 13, 2019 at 3:15pm

//अब तक मिले जो लोग हमें हौसला के साथ//

इस मिसरे में क़ाफ़िया का इस्तेमाल ठीक नहीं है,दुरुस्त करने का प्रयास करें ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on July 13, 2019 at 12:54pm

आ0 कबीर सर सादर आभार और नमन ।

विदादित काफ़िया हटा कर शेर में परिवर्तन कर दिया है । प्रस्तुत है परिवर्तित ग़ज़ल 

221 2121 1221 212
मुद्दत के बाद आई है ख़ुश्बू सबा के साथ ।
बेशक़ बहार होगी मेरे हमनवा के साथ ।।

शायद मेरे सनम का वो इज़हारे इश्क था ।
यूँ ही नहीं झुकी थीं वो पलकें हया के साथ ।।

वो शख्स कह रहा है मुझे बेवफ़ा सुनो ।
जो ख़ुद निभा सका न मुहब्बत वफ़ा के साथ ।।

माँगी मदद जरा सी तो लहज़े बदल गए ।
अब तक मिले जो लोग हमें हौसला के साथ।।

आँखों में साफ़ साफ़ सुनामी की है झलक।
कुछ तो ग़लत हुआ है तुम्हारी फ़ज़ा के साथ ।।

कुदरत सिखाए जो भी हुनर सीखिए हुजूऱ ।
कटती नहीं है जिंदगी केवल दुआ के साथ ।।

आएगी एक दिन वो बुलाने के वास्ते ।
रिश्ता है जिंदगी का यकीनन क़ज़ा के साथ ।।

अम्नो सुकूँ के साथ यहाँ जी रहे हैं लोग ।
निकलो न घर से रोज़ यूँ क़ातिल अदा के साथ ।।

चेहरा बता रहा है तुम्हारी खुशी का राज़ ।
गुज़रेगा आज वक्त कहीँ दिलरुबा के साथ ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी

Comment by Samar kabeer on July 11, 2019 at 11:24am

जी, सहीह वाक्य होगा 'तजरिबे के साथ','मशविरे के साथ' शिकवे गिले के साथ' 

ग़ौर करें ।

Comment by Samar kabeer on July 11, 2019 at 11:23am

जी, सहीह वाक्य होगा 'तजरिबे के साथ','मशविरे के साथ' शिकवे गिले के साथ' 

ग़ौर करें ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on July 11, 2019 at 12:20am

आ0 सुशील शरण साहब तहेदिल से बहुत बहुत शुक्रियः

Comment by Naveen Mani Tripathi on July 11, 2019 at 12:19am

आ0 प्रदीप भट्ट साहब हार्दिक आभार 

Comment by Naveen Mani Tripathi on July 11, 2019 at 12:18am

आ0 कबीर सर सादर आभार नमन ।

तज्रिबा : गिला: मशविरा : में स्वरांत आ है ।

इसलिए ये क्वाफी लिया था । इसके आगे क्या टेक्निकल बात है बताने की कृपा करें । 

सादर नमन ।

Comment by Samar kabeer on July 10, 2019 at 8:39pm

जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'वह शख्स दे गया है मुझे बेवफ़ा का नाम'

इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा:-

'वो शख़्स कह रहा है मुझे बेवफ़ा सुनो

'अब तक मिले जो लोग हमें मशविरा के साथ'

'जीतेंगे आप जंग मगर तज्रिबा के साथ '

'मिलिए न रोज़ रोज़ यूँ शिक़वा गिला के साथ '

इन मिसरों में क़वाफ़ी दुरुस्त नहीं,देखियेगा ।

Comment by Sushil Sarna on July 10, 2019 at 1:15pm

मुद्दत के बाद आई है ख़ुश्बू सबा के साथ ।

बेशक़ बहार होगी मेरे हमनवा के साथ ।।

शायद मेरे सनम का वो इज़हारे इश्क था ।

यूँ ही नहीं झुकी थीं वो पलकें हया के साथ ।।वाह सर वाह बड़े ही खूबसूरत अहसासों को पिरोया हैं आपने इस गजल में। दिल बधाई कबूल करें सर।

Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on July 8, 2019 at 12:08pm

खुबसुरत गज़ल हुई त्रिपठी जी 

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